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जिनोक्ति से विपरीत इस प्रकार के शास्त्र समूह की रचना करके यह निरंकुश गुरुद्रोही कथन करता है ।
यस्यानन्तसुखं तस्य नास्त्याहारप्रसंगता।
यद्यस्त्यन्नतसौख्यानां व्याधातो जायते ध्र वम् ॥२१२॥ जिसके अनन्त सुख है, उसके आहार का प्रसङ्ग नहीं है । यदि आहार का प्रसङ्ग है तो अनन्त सुखों में निश्चित रूप से व्याघात होता है।
नास्तिक्षुधां विनाहारः क्षुन्मुख्या दोषसंहतिः।
इति हेतोजिनेन्द्रस्य सदोषत्वं प्रसज्यते ॥२१३॥ क्षुधा के बिना आहार नहीं है । दोषों के समूह में क्षुधा मुख्य है। इन सब कारणों से जिनेन्द्र के सदोषत्व प्राप्त होता है।
वेदनीयस्य सदभावे बुभुक्षाद्यप्रजायते । तस्मात्केवलिनां भुक्तिनं भवेद्दोषकारिणी ॥२१४॥
वेदनीय के सद्भाव में भूख की इच्छा आदि उत्पन्न होती है । अतः केवली भुक्ति दोषकारिणी नहीं होगी ?
दग्धरज्जुसमं वेद्य स्वशक्तिपरिवजितम् ।
असमर्थ स्वकार्यस्य कर्तृत्वे क्षीणमोहिनि ॥२१॥ वेदनीय जली हुई रस्सी के समान अपनी शक्ति से रहित है । मोह के क्षीण हो जाने पर वह अपने कार्य के करने में असमर्थ है।