________________
५१
द्वितीय शुक्ल ध्यान में क्षीण मोह स्वरुप होकर घातिकर्म का क्षय करके वह केवली होने में समर्थ होता है ।
दशाष्टदोष निर्मुक्तो लोकालोकप्रकाशकः । अनन्तसुख संतृप्तः कथं भुनक्ति केवली ॥२२१॥
जो अठारह दोषों से रहित है, लोकालोक का प्रकाशक है, अनन्त सुख से सन्तृप्त है, ऐसा केवली भोजन कैसे करता है ?
सन्ति क्षुधादयो दोषाः कियन्तश्चेज्जिनेशिनः । निर्दोष वीतरागोऽसौ परमात्मा कथं भवेत् ॥ २२२ ॥
यदि जिनेश के क्षुधादि दोष हैं तो वह निर्दोष, वीतरागी परमात्मा कैसे हो ?
अथौदासीन्ययुक्तानां साधूनां भोजनादिकम् । कुर्वतां वीतरागत्वं सर्वेषां सम्मतं सताम् ॥२२३॥
मिथ्यात्वज्वरसम्पन्न तीव्रदाधवतामयम् । प्रलापस्तूपचारेण वीतरागा हामी यतः ॥ २२४॥
यदि कहो कि जो उदासीन हैं, प्रयुक्त हैं ऐसे साधुग्रों के भोजनादि करने पर भी समस्त सज्जनों के द्वारा वीतरागत्व माना गया है तो मिथ्यात्व रुपी ज्वर से युक्त तीव्र गर्मी वाले लोगों का यह प्रलाप है, क्योंकि ये (साधु) उपचार से वीतरागी हैं ।
विनाहारं न च क्वापि दृश्यतेऽत्र तनुस्थितिः । तस्मात्केवलीभिनूनमाहारो गृह्यते सदा ॥ २२५॥