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मायेयं तस्य तद्रपमनन्तं स्याद् निर्विकारकम तस्मात्तस्योदरे माति विश्वं तु मानगोचरम् ॥११८॥ असावप्यनया युक्तया विष्णुर्भवत्यचेतनः ॥११॥
विश्वगर्भमनन्तं स्याद्व्योमैकं तदचेतनम्। . विष्णु अनन्त है, केवल आकाश एक है और अचेतन है। (ऐसा कहने पर इस युक्ति से विष्णु भी अचेतन हो जाता है ।)
दशगर्भाश्रितं जन्म निर्विकारस्य जायते ।
प्रसंभाव्यं भवत्येतच्या पुत्रानुकारिणाम् ॥१२०॥ निर्विकार के गर्भ के आश्रित दश जन्म होते हैं। यह बात वन्ध्यापुत्र के समान असंभव है।
अनेन हेतुनाकिचित्करः स्यान्मधुसूदनः।
तस्मान्न संभवत्यस्य विश्वरक्षाधिकारिता ॥१२१॥ - इस हेतु से मधुसूदन अकिंचित्कर होते हैं । अतः इनके विश्व रक्षाधिकारिता संभव नहीं होती है ।
भस्म सात्कुरुते रुद्रस्त्रैलोक्यं स्वल्पचिन्तया ।
तदा संवसति क्वासौ गंगा गौरी समन्वितः ॥१२२॥ थोड़ी चिन्ता से यदि रुद्र तीनों लोकों को भस्म करते हैं तो वह गंगा और गौरी के साथ कहाँ रहते हैं ?
दहत्येकतरं ग्रामं स पापी भण्यते जनः ।
यो विश्वं निर्दहेत सर्व स कथं याति पूज्यताम् ॥१२३॥
जो एक भी गांव को जला देता है, उसे लोग पापी कहते हैं, किन्तु जो सम्पूर्ण विश्व को जला डाले, वह पूज्यता को कैसे प्राप्त होता है ? १ तावत् ख. ।