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ग्रात्मा नदी है, उसमें संयम रूपी जल भरा हुआ है, सत्य को धारण करने वाले शोल रूप जिसके तट और दया रूपी लहरें हैं । हे पाण्डुपुत्र ! तुम उसमें स्नान करो। अन्तरात्मा जल से शुद्ध नहीं होती है।
तस्माच्छुद्ध प्रपद्यन्ते जिनोद्दिष्टाध्वकोविदाः।
भव्याः स्वात्मसुखानन्दस्यन्दतोयावगाहनात् ॥४२॥ अतः जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे हुए मार्ग को जानने वाले भव्य जीव स्वात्म सुख के आनन्द रूपी प्रवाह में अवगाहन करने से शुद्ध हो जाते हैं ।
इति तीर्थस्नानदूषणम् । मांसेन पितवर्गस्य प्रीणनं यविधीयते ।
भक्षितं तैनिजं गौवं ईदृशी श्रुति कोविदः ॥४३॥ वेद के जानकार मांस के द्वारा जो पितरों को प्रसन्न करते हैं। उन्होंने अपने गोत्र का ही भक्षण कर लिया ।
स्वकर्मफलपाकेन गोत्रजाः पशुतां गताः ।
श्राद्धार्थ घातनात्तेषा किन्न स्यात्तत्पलादनम् ॥४४॥ गोत्र में उत्पन्न लोग अपने कर्म फल के परिपाक से पशुत्व को प्राप्त हुए । श्राद्ध के लिए उनका वध करने से क्या उनके मांस का भक्षण नहीं होगा ?
कथंचित्पशुतां प्राप्तः पिता स्वकर्मपाकतः।
हत्वा तमेव तन्मांसं तत्तप्त्यर्भक्षितं भवेत् ॥४५॥ १. पिताऽथ कर्मपाकतः ख ।