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तपसा.जायतेशुद्धिर्जीवस्येन्द्रियनिग्रहात् ।
सम्यक्त्वज्ञानयुक्तस्य वह्निना कनकं यथा ॥३६॥ सम्यक्त्व और ज्ञान से युक्त जीव की इन्द्रियनिग्रह के कारण तप से शुद्धि होती है । जिस प्रकार स्वर्ण की शुद्धि अग्नि से होती है। द्विकलम् -
व्रतशीलदयाधर्मगुप्तित्रयमहीयसाप। सद्ब्रह्मचर्यनिष्ठानां स्वात्मकाप्रचेतसाम् ॥४०॥ स्वाभावाशुचिदेहस्य संभोऽपिप्रजायते ।
विशुद्धत्वं यतीशानां जलस्नानं विना सदा ॥४१॥ . जो व्रत, शील, दया, धर्म और तीन प्रकार की गुप्तियों से महान् हैं, जो उत्तम ब्रह्मचर्य में निष्ठा रखते हैं और अपनी आत्मा के प्रति एकाग्रचित हैं, उनकी स्वभाव से अशुचिदेह होने पर भी जलस्नान के बिना विशुद्धि होती है ।
उक्त च गीतायाम् गीता में कहा है
अत्यन्त मलिनो देहो देही चात्यन्तनिर्मलः । उभयोरुतरं दृष्ट्वा कस्य शौचं विधीयते ॥१॥
आत्मानदीसंयमतोयपूर्णा सत्यावहा शीलतटा दयोमि । तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा ॥२॥
शरीर अत्यन्त अपवित्र है और आत्मा अतिपवित्र है । दोनों के अन्तर को देखकर किसकी पवित्रता धारण करें ? १ अस्याग्रे 'श्लोको' इति-ख. पाठः ।