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तदङगे चेन्न विद्धन्ते तच्छास्त्र स्यान्निरर्थकम् ।
सन्ति ते चेत्कथं हण्या निणर्यज्ञकर्मणि ॥६०॥ यदि प्राणी के अङ्ग में वे देवता नहीं हैं तो शास्त्र निरर्थक हो जाता है। यदि प्राणी के अङ्ग में वें है, तो निर्दयी व्यक्ति यज्ञ में उनका हनन क्यों करते हैं ?
इति' मांसेन पितृवर्गतृप्ति दूषणम् । अन्ये चवं वदन्त्येके यज्ञार्थ यो निहन्यते ।
तस्य मांसाशिनः सोऽपि सर्वे यान्ति सुरालयम् ॥६१॥
अन्य कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जो यज्ञ के लिए मारा जाता है, उसका मांस खाने वाले तथा वह, ये सब स्वर्ग लोक जाते हैं।
तत्किं न क्रियते यज्ञः शास्त्रज्ञेस्तस्य निश्चयात् ।
पुत्र वध्वादिभिः सर्वे प्रगच्छन्ति दिवं यथा ॥६२॥ यदि शास्त्रज्ञों को यह निश्चय है तो पुत्र, वधू आदि से यज्ञ क्यों नहीं करते हैं ? ताकि सब स्वर्ग चले जाए।
एवं विरुद्धमत्योन्यं मत्वा वास्तवमञ्जसा।
प्रतार्यतेऽन्ध वन्मांसविवेक विकलाशयः ॥६३॥
इस प्रकार मांस के विवेक में दु:खी अभिप्राय वालों के द्वारा अन्धों के समान ठगाए जाते हैं और यथार्थ रूप में परस्पर विरोधी बात को मानते हैं । १ इति ख-पुस्तके नास्ति । २ ख पुस्तकेऽयं तृतीयान्त: तदा पुत्रवध्वादिभिः सहयोजनीयः।