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गर्भ से निकलने पर कुछ ही समय बाद यज्ञादि में किया जाने वाला कर्म उसी प्रकार होता है ।
एवं भ्रमन्ति संसारे स्मृति लब्ध्वा पुनः पुनः । ज्ञात्वैवं क्रियतां भव्यैः प्राणिनां प्राणरक्षणम् ॥८५॥
इस प्रकार पुनः पुनः स्मृति प्राप्त कर संसार में भ्रमण करते रहते हैं । इस प्रकार जानकर भव्यजनों को प्राणियों की प्राण रक्षा करना चाहिए ।
इति यज्ञे पशुवधकृतेन स्वर्ग प्राप्ति दूषणम् ।
गोयोनिर्वद्यते नित्यं न चास्यं मलिनं यतः । पश्य लोकस्य मूर्खत्वं वर्तते हेतु वर्जितम् ॥ ८६ ॥
लोगों की अहेतुक मूर्खता को तो देखो। वे नित्य गोयोनि की वन्दना करते हैं, उससे उनका मुख मलिन नहीं होता है ।
तिरश्ची गौस्तृणाहारी नित्यं विण्मूत्रलालसा । तस्या अपरभागस्य कथं देवत्वभागतम् ॥८७॥
जो तिर्यञ्च जाति की है, तृण का आहार करने वाली है, नित्य, विष्ठा और मूत्र को लालसा वाली है, उसके पिछले भाग में देवत्त्व कैसे आ गया ?
ईग्विधापि वन्धा सा रज्ज्वा किं बन्ध्यते दृढम् । दुग्धार्थ पीडयते दण्डैराक्रन्दन्ती स्वभाषया ॥ ८८ ॥
यदि वह ऐसी वन्दनीय है तो उसे रस्सी से दृढ़ता से क्यों बांधा जाता है ? उससे दूध प्राप्त करने के लिए डंडे मारे जाते हैं और वह अपनी भाषा में प्राक्रन्दन करती है ।