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वेदान्तं क्षणिकत्वं च शून्यत्वं विनयात्मकम् ।
प्रज्ञानं चेति मिथ्यात्वं पंचधावर्तते भुवि ॥३२॥ मिथ्यात्व संसार में पाँच प्रकार से विद्यमान है-१. वेदान्त २. क्षणिकत्व ३. शून्यत्व ४. वैनयिक ५. अज्ञान ।
वेदवादीवदत्येवं विपरीतं तु मूढधीः । जलस्नानाद्भवेच्छुद्धिः पितृणां मांसतर्पणम् ॥३३॥ गोयोनिस्पर्शनाद्धर्मः स्वर्गाप्ति वधातनात् ।
इत्यादिदुर्घटोत्कट्यं वेदवादिमत मतम् ॥३४॥ मूढ बुद्धि वाले वेदवादी इस प्रकार विपरीत कहते हैं कि जल स्नान से शुद्धि होती है, पितरों का मांस से तर्पण होता है, गोयोनि के स्पर्श से धर्म होता है, जीवों के घात से स्वर्ग प्राप्ति होती है। इत्यादि दुर्घट उत्कट्य वेदवादियों के मत में मानी गई हैं।
यद्यम्बु स्नानतोदेही कृतपापाद्धि मुध्यते ।
तदा याति सदा सर्व जीवास्तोयसमुद्भवाः ॥३५॥
यदि जल में स्नान करने से शरीरधारी प्राणी किए हुए पाप से मुक्त हो जाते तो जल से उत्पन्न सभी प्राणी स्वर्ग चले जाते ।
यर्जितं पुरा पापं जीवैर्योगत्रयाश्रयात् ।
कथं तेंत्र विचन्ति तीर्थतोयावगाहनात् ॥३६॥ मन, वचन, काय को प्रवृत्ति रूप योगों के आश्रय से पूर्वकाल में जीवों ने जो पाप का उपार्जन किया है, वे जीव १ अत्र हि यमुद्देशं वेदवादी स्वीकृत्य जीवशुद्धि मत्यते तस्या: सोद्देशाया. निषेधः क्रियते न तु संहितादी विहितस्य लौकिकस्य गृहस्तस्नानस्य ।