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यदि यह मान लिया जाय कि दूसरों के द्वारा खाए जाने पर दूसरों को तृप्ति हो जाती है, तो उन स्वर्गों को गए हुए जीव तृप्त हो जायेंगे, यह निश्चित है।
पुत्रेणापितदानेन पितरः स्वर्गमवाप्नुयुः ।
तर्हि तत्कृत पापेन तेऽपि गच्छन्ति दुर्गतिर ॥५०॥ पुत्र के द्वारा दिए गए दान से यदि पितर स्वर्ग को प्राप्त हों तो पुत्र के द्वारा किए हुए पाप से वे पितर दुर्गति को भी प्राप्त हो जायें।
अन्यस्य पुण्यपापाभ्यां मुनक्त्यन्यः शुभाशुभम् ।
ईदृशं विपरीतं न क्वापि श्रयते मुवि ॥५१॥ अन्य के द्वारा किए गए पुण्य और पाप के शुभ और अशुभ फल को अन्य कोई भोगता है, ऐसी विपरीत बात पृथ्वी पर कहीं भी नहीं सुनी गई ।
मृत्वा जीवोऽथ गृहणाति देहमन्यं हितत्क्षणे। पितृत्वं कस्य जायेत वथैवं जल्पनं ततः ॥५२॥ यदि जीव मरकर तत्क्षण अन्य देह को धारण कर लेता है तो पितृत्व किसके उत्पन्न हुआ। अतः पितरों की उत्पत्ति कहना व्यर्थ है।
स्वकृत पुण्य पापाभ्यां प्राप्ति स्यासुखदुः खयोः ।
तस्माद्भव्याः कुरुध्वं तद्यस्माच्छयो भवेत्सदा ॥५३ । अपने द्वारा किए हुए पुण्य और पाप से सुख और दुख की प्राप्ति होती है। इस कारण हे भव्यो ! आप सदा ऐसा प्रयत्न करो, जिससे कल्याण हो ।