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कदाचित् यदि पिता अपने कर्म के परिपाक से पशुत्व को प्राप्त हो गया तो उसे मारकर उसका मांस उसी की तृप्ति के लिए होगा ।
कनामा द्विजस्तस्य पिता मृत्वा मृगोऽभवत् । तच्छा'द्ध' तत्पलं' दत्त्वा द्विजेभ्यस्तेन भक्षितम् ॥ ४६ ॥
बक नामक ब्राह्मण का पिता मरकर मृग हो गया । उसके श्राद्ध में उसी (मृग ) का मांस देकर ब्राह्मणों ने उसे ही खा लिया ।
श्रुत्वाप्येवं पुराणोक्तं सुप्रसिद्ध कथानकम् । तथाप्यज्ञाः प्रकुर्वन्ति पितॄणां मांसतर्पणम् ॥४७॥
पुराणों में कहे गए इस सुप्रसिद्ध कथानक को सुनकर भी अज्ञानी लोग पितरों के लिए मांसतर्पण करते हैं ।
१ पितुः ।
मांसाशिनोन पात्रं स्युमांसदानं न चोत्तमम् । तत्पितृभ्यः कथं तृप्त्यं मुक्त मांसा शिभिर्भवेत् ॥४८॥
पात्र नहीं होते हैं ।
मांस को खाने वाले ( दान के ) मांसदान उत्तम भी नहीं है । मांसाहारी लोगों के द्वारा खाया गया मांस उनके पितरों को तृप्ति प्रदान करने वाला कैसे होगा ?
मुक्तेऽन्यैस्तृप्तिरन्येषां भवत्यस्मिन् कथंचन ।
तत्तत्र'वर्ग' गता जीवास्तृप्तिं गच्छन्ति निश्चितम् ॥ ४६ ॥ २ पितृचरमृगस्य । ३ पितृणो । ४ तद्वत्स्वर्ग क. ।