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प्राचीनलिपिमाला
वज्र की तरह समर्थ मानी जाती धी', पिलकुल न होने पाये. इसी लिये बैदिक लोग न केवल मंत्रों को, परंतु उनके पदपाठ को, और दो दो पद मिला कर क्रमपाठ को, और इसी तरह पदों के उलट फेर से घन, जटा आदि के पाठ को स्वरसहिन कंठस्थ करते थे. गुरु मंत्र का एक एक अंश शिष्यों को सुनाना और वे उसे ज्यों का त्यों रट कर कंठस्थ करते, फिर पूरा मंत्र सुन कर उसे याद कर लेते. ऋग्वेद के समय में वेदों के पढ़ने की यही रीति थी और अबतक मी कुछ कुछ चली आती है, परंतु यह पठनशैली केवल वेदों के लिये ही थी, अन्यशास्त्रों के लिये नहीं. वेदों के पठन की यही रीति, जिससे स्वरों का शुद्ध ज्ञान होता था, बनी रहे और श्रोत्रिय ब्राह्मणों का भादर घट न जाय, इसी लिये लिखित पुस्तक पर से वेदों का पढ़ना निषिद्ध माना गया है, परंतु लिग्वितपाठक को अधमपाठक' कहना ही सिद्ध करता है कि पहिले भी वेद के लिखित पुस्तक होते थे और उनपर से पड़ना सरल समझ कर लोग उधर प्रवृत्त होने थे.इसी लिये निषेध करना पड़ा कि प्राचीन रीति उच्छिन्न न हो और स्वर मादि की मर्यादा नष्ट न हो. इस लिये वेद के पुस्तक लिम्बने का पेशा करना और पुस्तकों को बेचना पाप माना गया है। वेद के पुस्तक विस्मृति में सहायता के लिये अवश्य रहते थे और व्याख्यान, टीका, व्याकरण, निमत, प्रातिशाख्य प्रादि में सुभीते के लिये उनका उपयोग होता था.
वेद के पठनपाठन में लिखित पुस्तक का अनादर एक प्राचीन रीति हो गई और उसीकी देखादेखी और शास्त्र भी जहां तक हो सके कंठस्थ किये जाने लगे, और अबतक जो विधा मुखस्य हो वही विद्या मानी जाती है'. कोई श्रोत्रिय पुस्तक हाथ में लेकर मंत्र नहीं पड़ता था, होता स्तोत्र जवानी सुनाता और उदाता समय समय पर साम भी मुग्न से सुनाता. भवतक भी मच्छे कर्मकांडी सारी विधि और सारे मंत्र मुख से पढ़ते हैं, ज्योतिषी या वैद्य या धर्मशास्त्री फल कहने, निदान करने और व्यवस्था देने में श्लोक सुनाना ही पांडित्य का लक्षण समझते हैं, यहां तक कि वैयाकरण भी वही सराहा जाता है जो विना पुस्तक देखे महाभाष्य पड़ा दे. वेदमंत्रों के शुद्ध उचारण की और यज्ञादि कमरों में जहां जो प्रसंग पड़े वहां तस्दण उस विषय के मंत्रों को पढ़ने की मावश्यकता तथा वेदसंबंधी प्राचीन रीति का अनुकरण करने की रुधि, इन तीन कारणों से हिंदों की परिपाटी शताब्दिों से यही हो गई कि मस्तिष्क और स्मृति ही पुस्तकालय का काम दे. इसी लिये मूत्रग्रंथों की संक्षेपशैली से
१. रामदासरतो वो बामिया पथको मतमय भासम बारव हो सजनामिति पर्वमश: खरतो घराभात ॥ पतंजलिका महाभाष्य, प्रथम प्राधिक)
१. ऋग्वेद, ७.१०३. ५. 'एक मैदक दूसरे की बोली के पीछे या बोलता है जैसे गुरु के पीचे सीखने वाला' (परेमियो बन्यसागर वदति निक्षमाः).
पशान्तावासादास्पोखरिपूर्वका । पररे कामिना दापि न म मनम । (कुमारिल का तंत्रवार्तिक, १.३.)
गीतोषोशिकम्पो तथा सिसिपाडकः । पनचंचोलंपकपकपडे घाटकाधमाः । (यायल्क्य शिक्षा).
.. दकिपिपरीषदेदानां च का दाना सेवकाय ते निरगामिन (महाभारत, अनुशासनपर्व, ६३. २८). महाभारत में जिस प्रसंग में यह श्लोक है वह दानपात्र ब्राह्मणों के विषय में है. यहां पर 'घेदानां दूषकाः' का अर्थ 'बेड़ों में क्षेपकमादि मिलाने वाले'ही है, क्योकि इस श्लोक से कुछ ही ऊपर इमस मिलता हुआ 'ममचाभी का है जिस का अर्थ 'प्रतिक्षापत्र या इकरारनामों में घटा बढ़ा कर जाल करने वाले है.
• पुजारमा पापिया परहसमतं चमन । कार्यकाक्षेतु संपान मारियान सहनम् । (चाणक्यनीति).
• जो लोग मौतसूत्र, समयाचार(धर्म)सूत्र, गृह्यसूत्र, शुल्पसूत्र और व्याकरण मादि शानों के सूत्रों की संक्षिप्त महाली को देख कर यह मटकल लगाते हैं कि लेखनसामग्री की कमी से ये इतने संक्षिप्त और हिमाये गये और पिछले बचाकरणो मेमाची मात्रा की किफायतको पुनोस्सबके समान हर्षदायक माना भूल करते हैं. यदि लेखमसामग्री की कमी से ऐसा करते तो प्रामण ग्रंथ इतमे विस्तार से पा लिखे जाते? यह शैली केवल इसी लिये काम में लाई गई कि
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