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प्राचीनलिपिमाला. भी बौद्ध धर्म के तत्वों को जानने के लिये संस्कन और प्राकृत का पठन पाठन होने लगा और वहां के बहुतेरे विद्वानों ने समय समय पर अपनी भाषा में बौद्ध धर्म के संबंध में अनेक ग्रंथ रचे जिनमें हमारे यहां की कई प्राचीन बातों का पता लगता है. ई.स. ६६८ में बौद्ध विश्वकोष 'फा युभन् पुलिन्' बना, जिसमें 'ललितविस्तर' के अनुसार ६४ लिपियों के नाम दिये हैं, जिनमें पहिला ब्रास्त्री और दूसरा खरोष्ठी (किन-लु-से-टो-क-लु-से-टो स्व-रो-स-ट-खरोष्ठ) है और 'खरोष्ठ' के विवरण में लिखा है कि चीनी भाषा में इस शब्द का अर्थ 'गधे का होठ' होता है. उसी पुस्तक में भिन्न मिलिपियों के वर्णन में लिखा है कि 'लिखने की कला का शोष तीन देवी शक्ति वाले भाचार्यों मे किया, उनमें से सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा है, जिसकी लिपि (ब्राह्मी)बाई भोर से दाहिनी भोर पड़ी जाती है. उसके बाद किम-तु (किम-लु-से-दो स्वरोष्ठ का संक्षिप्त रूप) है, जिसकी लिपि दाहिनी मोर सेलाई भोर पड़ी जाती है और सब से कम महत्व का सं-की है, जिसकी लिपि (चीनी) ऊपर से नीचे की तरफ पढ़ी जाती है. ब्रह्मा और खरोष्ठ भारतवर्ष में हुप और स्सं-की चीन में. प्रमा और खरोष्ठ ने अपनी लिपियां देवलोक से पाई और रसं-की ने अपनी लिपि पत्नी मादि के पैरों के चिों पर से बनाई.५
उक्त चीनी पुस्तक के लेख से स्पष्ट हो गया कि जो लिपि बाई से दाहिनी ओर लिखी जाती है उसका प्राचीन नाम'मानी' और दाहिनी से बाई मोर लिखी जाने वाली का 'स्वरोष्ठी' था, 'ब्रामी। लिपि इस देश की स्वतंत्र और सार्वदेशिक लिपि होने से ही जैन और बौद्धों के ग्रंथ भी उसी में लिखे जाने लगे और इसी से उन्होंने लिपियों की नामावलि में इसको प्रथम स्थान दिया.
जब कितने एक यूरोपिअन् विद्वानों ने यह मान लिया कि हिंदू लोग पहिले लिखना नहीं जानते थेतब उनको यह भी निश्चय करने की आवश्यकता हो कि उनकी प्राचीन लिपि (ब्रानी) उन्होंने स्वयंचमाईचा इसरों से ली. इस विषय में भिन्न भिन्न विद्वानों ने कई भिन्न भिम अटकलें लगाई जिनका सारांश नीचे लिखा जाता है.
डॉ. ऑफ्रेर मूलर का अनुमान है कि सिकंदर के समय यूनानी लोग हिन्दुस्तान में आये उन. से यहां वालों ने अक्षर सीखे. प्रिन्सेप और सेना ने भी यूनानी लिपि से ब्रामी लिपि का बनना अनुमान किया और विलसन् ने यूनानी अथवा फिनिशिमन लिपि से उसका उदय माना. हलवे ने लिखा है कि हामी एक मिश्रित लिपि है जिसके पाठ व्यंजन तो ज्यों के स्यों इ.स. पूर्व की चौथी शताब्दी के 'अरमहक' भत्तरों से; व्यंजन, दो प्राथमिक स्वर, सब मध्यवर्ती स्वर और अनुरवार मारिमनो-पाली(खरोष्ठी) से; और पांच जन तथा तीन प्राथमिक स्वर प्रत्यक्ष या गौणरूप से
प्रक्ष नामक श्रमख ई. स. दर में चीन गया और ई. स. और २० केबीस उखने और एक दूसरे श्रमण ने मिल कर 'महायानबुरिषदपारमिताखून' तथा तीन दूसरे पुस्तकों का चीनी अनुवाद किया. ये घोड़े से नाम केवल उदाहरणार्थ दिये गये हैं. १. . पै; जिल्द ३४, पृ.२१.
२. ई.प., जिल्द ३४, पृ. २१. ३. प्राली लिपि वास्तव में 'नागरी' (देवनागरी) का प्राचीन रूप ही है. नागरी'माम कब से प्रसिशि में माया बह मिश्वित नहीं परंतु तांत्रिक समय में 'नागर (नागरी)नाम प्रचलित था, क्यों कि 'नित्यायोडशिकार्णव' की 'सेतुबंध' नामकटीका का कर्ता भास्करामंद एकार ()का त्रिकोण रुए 'नागर' (नागरी) लिपि में होना बतलाता है (कोरबरदुरमो सेसोपन तन् । मासरमिया साम्प्रदायिक रेकारखा चिकोचाकारसनगमान । ई.प.जिल्द ३५, पृ. २८३). 'वातुलागम' की टीका में लिखा है कि शिव मंत्र (ही) के अक्षरों से शिव की मूर्ति नागर' (नागरी) लिपि से बन सकती है। दूसरी लिपियों से बन नहीं सकती (मिमाम्रकारकनिः भामरहिरिभिसारथित पत्र । सिरितलिपिभिकारपियो । जिल्द ३५, पृ. २७१).
युरोपिमन् विद्वानों ने 'माहो' लिपि का पालोरिमन पाली,' 'साउथ (दक्षिणी) अशोक' मा 'सार' लिपि आदिमामों से भी परिचय दिया है परंतु हम इस लेख में सर्वत्र 'प्राली' नाम का ही प्रयोग करेंगे. ...: जिद ३५, पृ. २५३.
५. ज. पाई.स. १८पृ. २६८,
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