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प्राचीनलिपिमाला. अवशेषों तक अभी वह नहीं पहुंच सका है. अभी तक प्राचीन शिलालेख जो मिले है ई. स. पूर्व की पांचवीं शताब्दी से पहिले के नहीं है, परंतु साहित्य में प्रत्यक्ष या गौष रीति से लेखनकला के जो हवाले मिलते हैं वे बहुत प्राचीन समय तक जाते हैं. उन सब से सिद् होता है कि लेखनकला सर्वसाधारण में प्रचलित, एक पुरानी बात थी जिसमें कोई अनोखापम न था. जितने प्रमाण मिले हैं, चाहे प्राचीन शिलालेखों के अक्षरों की शैली, और चाहे साहित्य के उल्लेख, सभी यह दिखाते हैं कि लेखनकला अपनी प्रौढावस्था में थी. उसके भारम्भिक विकास के समय का पता नहीं चलता. ऐसी दशा में यह निमयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि ब्राह्मी लिपि का आविष्कार कैसे हुमा और इस परिपक रूप में, कि जिसमें ही हम उसे पाते हैं, वह किन किन परिवतनों के बाद पहुंची मिसर आदि में जैसे भावों के संकेतरूप चित्र हुए और वे शब्दों के संकेत हो कर उनसे अधरों के संकेत बने, इस तरह यहां भी किसी चित्रलिपि से ब्राश्री लिपि बनी, या प्रारम्भ से ध्वनि केही सूचक चिन्ह बना लिये गये, यह कुछ निमय के साथ नहीं कहा जा सकता. निश्चय के साथ इतना ही कहा जा सकता है कि इस विषय के प्रमाण जहां तक मिलते हैं वहां तक ब्राली लिपि अपनी प्रौद अवस्था में और पूर्ण व्यवहार में भाती हुई मिलती है और उसका किसी बाहरी स्रोत और प्रभाव से निकलना सिद्ध नहीं होता.
प्रार. शाम शास्त्री ने 'देवनागरी लिपि की उत्पत्ति के विषय का सिद्धांत' नामक एक विस्तृत लेख' में यह सिद्ध करने का यत्न किया है कि देवताओं की मूर्तियां बनने के पूर्व उनकी उपासना सांकोतिक विमों द्वारा होती थी जो कई त्रिकोण तथा चक्रों मादि से बने हुए यंत्र के, जो 'देवनगर' कहलाता था, मध्य में लिखे जाते थे. देवनगर के मध्य लिखे जाने याले अनेक प्रकार के सांकेतिक चित्र कालांतर में उन उन नामों के पहिले अक्षर माने जाने लगे और देवनगर के मध्य उनका स्थान होने से उनका नाम 'देवनागरी' हुभा. वह लेख बड़ी गवेषणा के साथ लिखा गया है और युक्तियुक्त अवश्य है, परंतु जब तक यह सिद्ध म हो कि जिन जिन तांत्रिक पुस्तकों से अवतरण उद्धृत किये गये हैं वैदिक साहित्य के समय के पहिले के, या कम से कम मौर्यकाल से पहिले के, हैं, तब तक हम उनका मत स्वीकार नहीं कर सकते.
मान् जगन्मोहनवर्मा ने एक लंबा चौड़ा लेख लिख कर यह बतलाने का यम किया है कि 'वैदिक चित्रलिपि या उससे निकली हुई सांकेतिक लिपि से प्राली लिपि का विकास हुमा, परन्तु उस लेख में कल्पित वैदिक चित्रलिपि के अनेक मनमाने चित्र अनुमान कर उनसे मिन अक्षरों के विकास की जो कल्पना की गई है उसमें एक भी अचर की उत्पत्ति के लिये कोई भी प्राचीन लिखित प्रमाण नहीं दिया जा सका. ऐसी दशा में उनकी यह कल्पना रोचक होने पर भी प्रमावरहित होने से स्वीकार नहीं की जा सकती. बाबू जगन्मोहनवर्मा ने दूसरी बात यह भी निकाली है कि '' 'ठ,'','ढ' और 'ए' ये पांण मूर्धन्य वर्ण पार्यों के नहीं थे. वैदिक काल के भारंभ में अनायों की भाषा में मूर्धन्य वर्गों का प्रयोग जब भार्यों ने देखा तब वे उनके कानों को बड़े मनोहर लगे, अतएव उन्होंने उन्हें अपनी भाषा में ले लिया.'
इसके प्रमाण में लिखा है कि 'पारसी आर्यों की वर्णमाला में मूर्धन्य वर्षों का सर्वथा अभाव है और धातुपाठ में थोड़े से धातुभों को छोड़ कर शेष कोई धातु ऐसा नहीं जिसके मादि में मूर्धन्यवर्ण हो', परंतु पारसी आर्यों के यहां केवल मूर्धन्यवों का ही प्रभाव है यही महीं किंतु उन की वर्णमाला में 'छ,'भ' और 'ल' वर्ण भी नहीं है और वैदिक या संस्कृत साहित्य में ''से प्रारंभ होने वाला कोई धातु या शब्द भी नहीं है, तो क्या 'छ, 'म', 'ल' और 'घ' वर्ष
१. ई., जि. ३५, पृ. २५३-६७ २७०-१० १११-२४. १. सरस्वती ई.स. १९१४, पृ. ३७०-७१.
.. सरस्वती.ई.स. १५९३ से १५१५ तक कई जगह
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