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वर्तमान लिपियों की उत्पत्ति. ५६ शक में दी हुई प्राचीन ग्रंथ लिपि से निकली है. पहिले संस्कृत पुस्तक भी इसी लिपि में छपने क्षग गये थे परंतु अब बहुधा नागरी में छपने लगे हैं.
लिपिपत्र ८१वां इस लिपिपत्र में मलयाळम् , तुझु और तामिळ लिपियां दी गई हैं.
मलयाळम् लिपि-मलयाळम् अर्थात् केरल देश की लिपि होने से इसको मलयाळम् या केरल लिपि कहते हैं. यह लिपि ग्रंथ लिपि का सीट रूप ही है और इसके प्रदर यसीट रूम में भी ग्रंथ लिपि से मिलते हुए हैं. इसका प्रचार दक्षिणी कनड़ा प्रदेश के दक्षिणी विभाग, सारे मक्षबार और कोचीन एवं ट्रावनकोर राज्य के अधिकतर हिस्से ( त्रिचंद्रम् से उसर के) में है. तामिळ भाषा बोलनेवाले बहुधा संस्कृत पुस्तक लिखने में ग्रंथ लिपि की नई इसका प्रयोग करते हैं.
तुलु लिपि-ग्रंथ लिपि से निकली हुई मलयाळम् लिपि का ही यह किंचित् परिवर्तित रूप है. इस लिपि का प्रचार दक्षिणी कनड़ा प्रदेश के तुझु भाषाभाषी लोगों में संस्कृत ग्रंथ लिखने में ही है.
तामिळ लिपि-यह लिपि लिपिपत्र ६०-६२ में दी हुई प्राचीन तामिळ लिपि में बनी है. 'तामिळ' शब्द की उत्पत्ति देश और जातिसूचक 'द्रमिल (द्रविड़) शब्द से हुई है. सामिळ 'भाषा आये लोगों की संस्कृत भाषा से बिलकुल भिन्न है तो भी उसके अचर आये लिपियों से ही लिये गये हैं (देखो, ऊपर पृ. ४४,६५), इस लिपि में व्यंजन वर्ण केवल १८ होने से संस्कृत भाषा इस में लिखी नहीं जा सकती इसलिये संस्कृत शन्दों का जहां प्रयोग होता है वहां ये ग्रंथ लिपि में लिखे जाते हैं. इसमें 'ए' और 'ओ' के दो दो रूप अर्थात् इस्व और दीर्घ मिलने है ( देखो. ऊपर प. १७). इसका प्रचार मद्रास इहाते के मद्रास से कुछ ऊपर तक के, दक्षिणपूर्वी हिस्से अर्थात् उसरी मार्कट, चिंग्लेपन, दक्षिणी आर्कट, सलेम्, कोइंबाटोर, ट्रिचिनापोली, तंजौर, मदुरा और ति यति जिलों एवं ट्रावनकोर राज्य के दक्षिणी अंश (त्रिवंद्रम् से नीचे नीचे) और पदुकोटा राज्य में है.
२२-भारतवर्ष को मुख्य मुख्य वर्तमान लिपियों की उत्पत्ति
(लिपिपत्र ८२ से के उत्तरार्ध के प्रथम खंड तक)
भारतवर्ष की नागरी, शारदा, बंगला, तेलुगु, कनड़ी, ग्रंथ, तापिळ. आदि समस्त वर्तमान (उई को छोड़ कर) लिपियों का मूल 'ब्राह्मी लिपि है, परंतु ये लिपियां अपनी मूल लिपि से इतनी भिन्म हो गई है कि जिनको प्राचीन लिपियों से परिचय नहीं हैं वे सहसा यह स्वीकार भी न करेंगे किये सब लिपियां एक ही मूल लिपि से निकली हैं. लेखनप्रवाह सदा एक ही स्रोत में नहीं बहता किंतु लेखकों की लेखनरूचि के अनुसार समय के साथ भिन्न भिन्न मार्ग ग्रहण करता रहता है। इसीसे सब देशों की प्राचीन लिपियां पलटती रही हैं. हमारे यहां की भित्र भिन्न लिपियां एक ही मूल स्रोत की शाखा प्रशाखाएं हैं जिनके विकास के मुख्य कारण ये हैं
(अ) अचरों को भिन्न भिन्न प्रकार से मुंदर बनाने का यन करना.
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