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भारतीय संघ (३) इसकी मासपक्षयुत तिथिगणना भी 'मालवपूर्वी, अर्थात् मालवे ( या मालवों ) की गणना के अनुसार की, कहलाती थी.
जयपुर राज्य के नगर (कर्कोटक नगर ) से कुछ सिके ऐसे मिले हैं जिन पर 'मालवाला) जय(यः) २ लेख होना बतलाया जाता है. उनकी लिपि ई. स. पूर्व २५० से लगा कर ई. स. २५० के बीच की अर्थात् विक्रम संवत् के प्रारंभ के पास पास की मानी गई है. हन स्किों से अनुमान होना है कि मालव जाति के लोगों ने जम प्राप्त करके उसकी यादगार में ये सिके चलाये हों, समुद्रगुप्त ने मालव जाति को अपने अधीन किया था. इससे भी यह अनुमान होता है कि मालवों का उपर्युक्त विजय गुप्तों से पूर्व ही हुशा था. यह भी संभव है कि मालव जाति के लोगों में । अवंति देश को जीत कर अपना राज्य वहां जमाया हो और उसीसे वह देश पीछे से मालव (मालवा) कहलाया हो एवं वहां पर मालव जाति का राज्य स्थिर होने के समय से प्रचलित होने के कारण यह संवत् 'मालवकाल' या 'मालक संघन्' कहलाया हो.
कुछ विद्वानों का मत यह है कि इस संवत् का नाम वास्तव में मालव संवम् ही था परंतु पीछे से गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त (दूसरे)का, जिसके पिद 'विक्रम' और 'विक्रमादित्य' आदि मिलते हैं, नाम इस संवत् के साथ जुड़ जाने से इसका नाम विक्रम संवत् हो गया हो. यह कल्पना तभी ठीक कही जा सकती है जब इतिहास से यह सिद्ध हो जावे कि चंद्रगुप्त (इसरे) के पहिले विक्रम नाम का कोई प्रसिद्ध राजा नहीं हुआ, परंतु हाल (सातवाहन, शालिवाहन) की 'गाथासप्तशति' से यह पाया जाता है कि उस पुस्तक के संगृहीत होने के पूर्व विक्रम नामका प्रसिद्र राजा हुमाथा'. हाल का समय इ. स.
में ४ का भार देने से ४ बने ( अर्थात् कुछ न बचे) उसका नाम कन, ३ बजे उसका ता.२ ववे उपकाद्वापर और १ वचे उसका कलि है' यह यगमान जिन ४ लेखों में 'मृत' संज्ञा का प्रयोग हुआ है नीचे लिले अनुसार ठीक घट जाता है
(१) विजयमंदिरगढ़ (बयाना ) के लेख के वर्ष ४२८ को गत मान कर ४ का भाग देने से कुछ नहीं वत्रता इससे उसका नाम 'कृत हुअा.
(२) मंदसौर के वर्ष ४६१ को वर्तमान प्राप्ते ) कहा ही है इस लिये गत वर्ष ४१० है जेई 'क्रत ही है (३) गंगधार ( झालावाड़ राज्य मै) के लेख के वर्ष ४८० को मत ही लिखा है जिससे वह 'कृ'ही है. (४) नगरी के लेख के वर्ष ४८१ को वर्तमान माने तो गत ८० होता है जो कुस' ही है
ऐसी दशा में यह कहा जा सकता है कि मालवा और राजनाने में कृतादि युगगणना की प्राचीन शैली का प्रचार १.स. की पांचयीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक बना हुआ था.
.. संभव है कि मालय की गणना चैत्रादि पूर्णिमांत हो. २. का प्रा. स. रिजि . ६, पृ. १८२.
.. प्ली: गु.ई ... ८. चंद्रगुप्त (दूसरे के सिक्कों पर एक तरफ उस राजा के नाम काले लख और दूसरी और 'श्रीविक्रमः', 'विक्रमादित्यः', सिंहविक्रमः', 'अजितविक्रमः' आदि उसीके विरुदसूचक लेख हैं (जॉन ऍलन संपादित, गुप्तों के सिकों को मुचि.)
___५. संवाहणासुहरसतोसिएण देन्तेण तुह करे लक्खं । नलगोगा विकमाइच्चरित्र सिक्खि ग्रं निस्सा (गाथा ४३४. वेयर का संस्करण) इस गाथा में विक्रमादित्य की दानशीलता की प्रशंसा है.
* कविणं भते जुम्मा परमात्ता ? गोयम चत्तारि जुम्मा परमात्ता । तं जहा । कथानुम्म तेयोले दाबरसम्म कलिनुगे । ने जायेगा भते ? एवं उच्चयि जाब कलिनुगे गोयम ! जेरा रासी चयुक्केगा अबहारेणं अबहरिमारणे वयुपञ्जवसिये से त कयजुम्मे 1 जणं रासा चकरा: भवहारेणं अवहरिमाणे तिपज्जवसिये से तं तेयोजे । जेणं रासी चयुक्केण अवहारेण अवहरिमायो दुपत्रमिये से ते दाबरजुम्म । जेगां रालो च्युसणं अवहारेणं अवहरिमाणे एकपज्जवसिये से तं कलिनुगे । से तेणघेणं गोयम (१६७१-७२, भगवती सूत्र. गवामयन' पृ. ७२. ___ कृतेषु चतुर्यु वर्षशतेष्वष्टाविशेषु ४०० २०८ फास्गुणान बहुलस्य पञ्चदशामतस्यां पूर्वायां (फ्ली; गु. ई; पृ. २५३ )
* शिलालेखादि में विक्रम संवत् के वर्ष वहुधा गत लिखे जाते हैं (पं. ई, जि. १, गृ. ४०६ ) वर्तमान बहुत कम. जय कभी वर्तमान वर्ष लिखा जाता है तब एक वर्ष अधिक लिखा रहता है.
यातेषु चतुर्पु कि(क)तेषु शतेषु सोस्ये(म्ये)वा(शा)शीतसोत्तरपदेविड़ वत्सारेषु । शुझे लयोदशदिने भुवि कार्तिकाय मासस्य सर्चमनचित्तसुखावहस्य ।। (ली; गु. पृ. ७४).
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