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भारतीय संवत्.
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चलाया होगा जिसका नाम इसके साथ जुड़ा हुआ है और जैसा कि विजयशंकर गौरीशंकर ओझा का अनुमान है.
मांगरोल की सोडवी बाव (बावडी ) के लेख में विक्रम संवत् १२०२ और सिंह संवत् ३२ आम्चिन यदि १३ सोम बार लिखा है जिससे विक्रम संवत् और सिंह संवत् के बीच का अंतर १२०२-३२- ) ११७० जाता है. इस हिसाब से ई. स. में से १९१३-१४ घटाने से सिंह संवत् होगा.
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चौलुक्य राजा भीमदेव ( दूसरे ) के दानपत्र में वि. सं. १२६६ और सिंह संवत् १६ मार्गशिर यदि १४ गुरु बार लिखा है. इससे भी वि. सं. और सिंह संवत् के बीच का अंतर (१२६६-१६=) ११०० आता है जैसा कि ऊपर बतलाया गया है.
चीलुक्य अर्जुनदेव के समय के उपर्युक्त १३२० और सिंह संवत् १५१ आषाढ कृष्णा १३
वेरावल के ४ संवत्वाले शिक्षालेख में वि सं. लिखा है. उक्त लेख का विक्रम संवत् १३२०
(१०) दोड़कर के ऊपर के ही अंक लिखे गये है. ऐसा मानने का कारण यह है कि उनके पसे १२ वर्ष पहले डॉ. बूसर ने श्रीलय भीमदेव (पहिले) का वि. सं. २००३ कार्तिक शुदि १५ का दानपत्र प्रसिद्ध किया (जि. ६, पृ. ९६३-४ ) जिसमें उसका लेखक कायस्थ कांचन का पुत्र बटेश्वर और दूतक महासांधिविग्रहिक शर्मा होना लिखा है. डॉ. के प्रसिद्ध किये हुए संवत् २३वाले दानपत्र का लेखक भी यही कायस्थ कांचन का पुत्र बटेश्वर और तक पह महासांधिविग्रहक शर्मा है इसलिये ये दोनों दानपत्र एक ही राजा के है यह निश्चित है ऐसी दशा में डॉ. वा दानपत्र का संवत् ६३ विक्रम संवत् २०६३ ही है न कि १९६२ या १२६३. शिलालेख और दानपत्रों के संतों में कभी कभी शताब्दियों के अंकों को छोड़ कर केवल ऊपर के ही अंक दिये हुए मिलते हैं जो विज्ञानों को में बाल देते हैं.
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देवदत रामकृष्ण भंडारकर ने कोटा राज्य के नामक स्थान से मिले हुए महाराजाधिराज जयसिंह के ले 'संवत् १४हुआ होने से लिखा है कि यदि यह जयसिंह चौलुक्य सिद्धराज जयसिंह है और संवत् १४ उसका चलाया हुआ संवत् [ जिसको जयसिंह का चलाया हुआ मान लिया है ] है तो उस [ लेख] का समय ई. स. ११९८ [ वि. सं. १९८५ ] आता है. उक्त लेख का जयसिंह कोई दूसरा जयसिंह हो सकता है परंतु वह उक्त नाम के चालुक्य राजा से पहिले का नहीं हो सकता क्यों कि अक्षरों पर से उस लेख का [ई. स. की ] १२ वीं शताब्दी से पहिले का होना पाया नहीं जाता' ( प्रो. दि. मा. स. के. ई. ई.स. १६०५-५, पू. ४८). भटू के लेख का संवत् भी सिंह संवत् १४ नहीं किंतु बि. सं. १३१४ होना चाहिये जिसमें भी शादियों के अंक छोड़ दिये गये हैं. वह लेख या तो मालवे के महाराजाधिराज जयसिंह दूसरे (जयतुगिदेव ) का, जिसके समय का रायगढ़ का लेख वि. सं. १३१२ भाद्रपद सुदि ७ ( की लि. ई. नॉ. ई. पू. १२. लेखसंख्या २९३ ) का मिला है, या उसके छोटे भाई जयवर्मन् का, जिसका दानपत्र वि. सं. १९१७ का मिला है (पॅ.जि. ६, पृ. १२०-२१), होना खहिये. कोटा और झालावाड़ के इलाके पहिले मालवे के परमारों के अधीन थे जिनके लेख ई. स. की ११ वीं से १३ वीं शताब्दी के वहां पर मिलते हैं. ऐसे ही उक्त विद्वान् ने जोधपुर राज्य के बाड़ी गांव से मिले हुए कटुराज के समय के एक लेख का संवत् ३१ पढ़ा है और उसको सिंह संग्रह मान कर विक्रम संवत् १२०० मे कलराज का नाडोल का राजा होता माना है तथा उरू कटुराज को बाहमान (चौहान) अश्वराज (भाराज) का म कटुकराज बतलाया है (ऍ. इंजि. ११, पृ. २४ ६६) वह लेख बहुत बिगड़ी हुई दशा में हैं इस लिये उसके शुद्ध पड़े जाने के विषय में हमे शंका ही है. यदि इसका संवत् ३२ हो तो भी वह सिंह संवत् नहीं किंतु वि. सं. १९३२ होना चाहिये. क्योंकि डोके बान के लेख में कहीं सिंहसंग नहीं है. स्वराज के पुत्र कटुकराज के सेवाड़ी के दूसरे लेख में वि. सं. ११७९ (.; जि. ११, पू. ३१०३२) ही लिखा है और बि. सं. १९८६ से १२०१ तक के कई शिक्षा चौहान राजा रायपाल के समय के नाडोल और नारलाई से मिले हैं (ऍ है, जि. १६. पू. ३४-४३.) जिनसे पाया जाता है कि त्रि. सं. १९८६ से १२०२ तक नाडोल का राजा रायपाल या न कि कट्टराज ऐसी दशा में सिंह संवत् ११ (वि. सं. १२०० ) में कद्रराज का नाडोल का राजा होना संभव नहीं हो सकता. काठियावाड़ से संबंध रखनेवाले लेखों में सिंहसं मानने की चेष्टा करने के केवल उपयुक्त तीन ही उदाहरण अब तक मिले हैं जिनमें से एक में भी सिंह संवत् नहीं किंतु शताब्दियों के अंकरहित व से. केही वर्ष है.
१. श्रीमद्विक्रमसंवत् १२०२ तथा श्रीसिंह
श्रीविक्रमसंवत् १२९६ को
•. देखो ऊपर पृ. १७५ और उसीका टिप्पण ४.
२२ आश्विननदि १३ सोमे ( भावनगर प्राचीन शोध संग्रह, भाग १, पृ. ७). लोकि मार्ग यदि १४ गुरा (ई. जि. १८४११२)
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