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प्राचीनलिपिमाला. वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् का अंतर १९३२ तथा ई. स. और वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् का अंतर १०७५-७६ आता है अर्थात् वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् में १०७५-७६ मिलाने से ई.स. बनता है.
कुर्तकोटि से मिले हुए लेख में चालुक्य विक्रमवर्ष ७ दुंदुभि संवत्सर पौष शुक्ला ३ रथि वार उत्तरायण संक्रांति और व्यतीपात लिखा है. दक्षिणी वाहस्पत्य गणना के अनुसार दुंदुभि संवत्सर शक सं. १०.४ था। इससे भी गत शक संवत् और वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् का अंतर (१००४७-६७ पाता है जैसा कि ऊपर बतलाया गया है.
इस संवत् का प्रारंभ चैत्रशुक्ला १ से माना जाता है. यह संवत् अनुमान १०० वर्षे चल कर अस्त हो गया. इसका सब से पिछला लेख चालुक्य विक्रम संवत् ६४२ का मिला है.
१७–सिंह संवत् यह संवत् किसने चलाया यह भय तक निश्चित रूप से मालूम नहीं हुआ. कर्नल जेम्स टॉड ने इसका नाम 'शिवसिंह संवत्' लिखा है और इसको दीय बेट (काठियावाड़ के दक्षिण में) के गोहिलों का पलाया हुमा बतलाया है. इससे तो इस संवत् का प्रवर्तक गोहिल शिवसिंह मानना पड़ता है. भावनगर के भूतपूर्व दीवान विजयशंकर गौरीशंकर अोझा ने लिखा है कि 'श्रीसिंह का नाम पोरबंदर के एक लेख में मिल पाता है जिसमें उसको सौराष्ट्र का मंडलेश्वर लिखा है, परंतु पीछे से उसने अधिक प्रबल हो कर विक्रम संवत् १९७० (ई.स. १९१४) से अपने नाम का संवत् चलाया हो ऐसा मालूम होता है; परंतु पोरबंदर का वह लेख अब तक प्रसिद्धि में नहीं माया जिससे मंडलेश्वर सिंह के विषय में कुछ भी कहा नहीं जा सकता.
डॉ. भगवानलाल इंद्रजी का कथन है कि 'संभवतः ई. स. १९१३-१९१४ (वि. सं. ११६९-७०) में चौलुक्य ] जयसिंह (सिद्धराज) ने सोरठ ( दक्षिणी काठियावाड़) के [राजा] खंगार को विजय कर अपने विजय की यादगार में यह संवत् चलाया हो. परंतु यह कथन भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्यों कि प्रथम तो ई. स. १९१३-१४ में ही जयसिंह के खेंगार को विजय करने का कोई प्रमाण नहीं है. दूसरी आपत्ति यह है कि यदि जयसिंह ने यह संवत् चलाया होता तो इसका नाम 'जयसिंह संवत्' होना चाहिये था न कि सिंह संवत् क्यों कि संवतों के साथ उनके प्रवर्तकों के पूरे नाम ही जुड़े रहते हैं. तीसरी बात यह है कि यदि यह संवत् जयसिंह ने चलाया होता तो इसकी प्रवृत्ति के पीछे के उसके एवं उसके वंशजों के शिलाखेखों तथा दानपत्रों में मुख्य संवत् यही होना चाहिये था परंतु ऐसा न होना यही बतलाता है कि यह संवत् जयसिंह का चलाया हुआ नहीं है. काठियावाड़ से बाहर इस संवत् का कहीं प्रचार न होना भी यही साबित करता है कि यह संवत् काठियावाड़ के सिंह नाम के किसी राजा ने
.. .एँ: जि. २२, पृ. १०६. २, इ. जि. १, पृ. ६७-८. ३. कर्नल जेम्स टॉड का 'ट्रॅयल्स इन् चेस्टर्न इंडिया', पृ. ५०६ और टिप्पण. .. 'भाषनगर प्राचीन शोध संग्रह, भाग १, पृ. ४-५ (गुजराती); अंग्रेजी अनुवाद, पृ.२.३. ४. चंय.ग; जि. प. भाग १, पृ. १७६.
. गुजरात के चौलुक्य (सोलंकी) राजा भीमदेव के दानपत्र में, जिसमें कच्छ मंडल (कच्छ राज्य) के सहसचाप गांव की कुछ भूमि दान करने का उल्लेख है, केवल 'संवत् १३' लिखा है जिसको उसके संपादक डॉ. फ्लीट ने सिंह संवत् भनुमान कर उक्त दानपत्र को विक्रम संवत् १२६२ या १२६३ का मामा और चौलुक्य भीमदेष (दूसरे)का, जिसने वि.सं. १२३५ से १२६८ तक राज्य किया था, ठहरा दिया (ई. जि.१८पू.१०८-१.); परंतु ऐसा करने में उन विद्वान् ने धोखा खाया है क्योंकि न तो वह दानपत्र भीमदेव (दूसरे)का है और न उसका संवत् १३ सिंह संवत् है जैसा कि माना गया है वास्तव में वह दामपत्र बीलुक्य ( सोलंकी) भीमदेव ( पहिले) का है और उसका संबत् वि. सं. १०६३ है परंतु शताम्बियों के अंक
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