Book Title: Bharatiya Prachin Lipimala
Author(s): Gaurishankar H Oza
Publisher: Munshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi

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Page 208
________________ भारतीय संवत् राज्य का उदय हुभा जिसके मस्त होने के पीछे यहांवालों ने गुप्त संवत् का ही माम 'बलमी संवत्' रक्खा . अल्बेरुनी लिखता है कि वलभीपुर के राजा बलम के माम से उसका संवत् पलमी संवत् कहलाया. यह संवत् शक संवत् के २४१ वर्ष पीछे शुरू हुमा है. शक संवत् में से ६ का धन और ५का वर्ग (२१६+२५-२४१) घटाने से वलभी संवत् रह जाता है. गुप्तकाल के विषय में लोगों का कथन है कि गुप्त लोग दुष्ट [और] पराक्रमी थे और उनके नष्ट होने पर भी लोग उनका संवत् लिखते रहे. अनुमान होता है कि बलभ उन (गुप्तों) में से अंतिम था क्यों कि बल भी संवत की नाई गुप्त संवत् का प्रारंभ भी शक काल से २४१ वर्ष पीछे होता है. श्रीहर्ष संघत् १४८८, विक्रम संवत् १०८८, शककाल ६५३ और बलभी तथा गुप्तकाल ७१२ ये सय परस्पर समान हैं. इससे विक्रम संवत् और गुप्तकाल का अंतर (१०८८-७१२%) ३७६ माता अर्थात् गुप्त संवत् में ३७६ मिलाने मे चैनादि विक्रम संवत्, २४१ मिलाने से शक संवत् और ३१९-२० मिलाने से ई.स. पाता है. गुजरात के चौलुक्य अर्जुनदेव के समय के वेरावल (काठियावाड़ में) के एक शिलालेख में रसूल महंमद संवत् (हिजरी सन् ) ६६९, विक्रम संवत् १३२०, वलभी संवत् ६४५ और सिंह संवत् १५१ आषाढ़ कृष्णा १३ रविवार लिखा है. इस लेख के अनुसार विक्रम संवत् और बलभी (गुप्त) संवत् के बीच का अंतर (१३२०-६४५ = ) ३७५ माता है परंतु यह लेख काठियावाड़ का होने के कारण इसका विक्रम संवत् १३२० कार्तिकादि है जो चैत्रादि १३२१ होता है जिससे क्षेत्रादि विक्रम संवत् और गुप्त ( बलभी) संवत् का अंतर ३७६ ही पाता है जैसा कि ऊपर लिखा गया है. चैत्रादि पूर्णिमांत विक्रम संवत् और गुप्त ( बलभी) संवत् का अंतर सर्वदा ३७६ वर्ष का और कार्तिकादि अमांत विक्रम संवत् और गुप्त ( वलभी) संवत् का अंतर चैलशुक्ला १से पाश्विन कृष्णा अमावास्या तक ३७५ वर्षे का और कार्तिक शुक्ला १ से फाल्गुन कृष्णा अमावास्या तक ७६ वर्ष का रहता है. गुस संवत् का प्रारंभ चैत्र शुक्ला १ से और महीने पूर्णिमांत हैं. इस संवत् के वर्ष बहुधा गत लिम्बे मिलते हैं और जहां वर्तमान लिखा रहता है यहां एक वर्ष अधिक रहता है. १. काठियावाड़ में गुप्त संवत् के स्थान में वलभी संवत्' लिखे जाने का पहिला उदाहरण ऊना गांव (जूनागढ़ राज्य में से मिले हुए कनौज के प्रतिहार राजा महेंद्रपाल के चालुक्यवंशी सामंत बलवर्मन् के बलभी संवत् ५७४ (ई. स. ८१४) माघ शुद्ध ६ के दानपत्र में मिलता है ( . ई: जि. ८. पृ.६) १. अल्बरुनी ने 'बलभी संवत्' को वलभीपुर के राजा वलभ का चलाया हुआ माना है और उक्त राजा को गुप्त वंश का अंतिम राजा बतलाया है परंतु ये दोनों कथन ठीक नहीं है क्योंकि उक्त संवत् के साथ जुड़ा हुआ 'वलभी' नाम उक नगर का सूचक है न कि वहां के राजा का, और न गुप्त वंश का अंतिम राजा वलभ था. संभव है कि गुप्त संवत् के प्रारंभ से ७०० से अधिक वर्ष पीछे के लेखक अल्बेरुनी को 'बलभी संवत्' कहलाने का ठीक ठीक हाल मालूम न होने के कारण उसने ऐसा लिख दिया हो अथवा उसको लोगों ने ऐसा ही कहा हो. .. सा; अ.: जि. २, पृ. ७. फ्ली: गु: भूमिका, पृ. ३०-३६ ४. रसूलमहमदसंवत् ६६२ तथः श्रीनृवि क्रमसं १३२० तथा श्रीमद्वलभीसं ५५ तथा श्रीसिंहसं १५१ वर्षे आषाढवादि १३ खो (.५: जि. ११, पृ. २४२), बेरायल के उक्त खेख के विक्रम संवत् को कार्तिकादि मानने का यह भी कारण है कि उसमें लिखा हुमा हिजरी सन् ६६२ चैत्रादि विक्रम संवत् १३२० मार्गशीर्ष शुक्ला २ को प्रारंभ हुआ था, अतएव हि. स. ६६२ में जो आपराद मास माया यह चैत्रादि वि. सं. १३२९ ( कार्तिकादि १३२०) का ही था. खेड़ा से मिले हुए बलभी के राजा धरसेन ( चौथे) के गुप्त संवत् ३३० के दानपत्र में उक्त संवत् में मार्गशिरमास अधिक होना लिखा है ( सं. ३०० ३० द्विमार्गशिरशु२. ई. ए. जि. १५, पृ. ३४० ). गत गुरु संघत् ३३० गत विक्रम संवत् ( ३३०+३७६%) ७०६ के मुताबिक होता है गत विक्रम संवत् ७०६ में कोई अधिक मास नहीं था परंतु वि. स. ७०५ में मध्यम मान से मार्गशिर "म अधिक भाता है इस लिये उक्त ताम्रपत्र का गुप्त संवत् ३३० बर्तमान (३२१ गत) होना चाहिये. Ahol Shrutgyanam

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