Book Title: Bharatiya Prachin Lipimala
Author(s): Gaurishankar H Oza
Publisher: Munshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi

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Page 207
________________ प्राचीनलिपिमाता. माग्विन शुक्ला ११ से इसका प्रारंभ होना निश्चय किया है जिससे वर्तमान चेदि संवत् में २४८-४६ जोड़ने से ईसवी सन् , और ३०५-६ जोड़ने से गत चैत्रादि विक्रम संवत् पाता है. इस संपत्वाला सब से पहिला लेख कलचुरि संवत् २४५ (ई. स. ४६४) का और अंतिम १५८" (ई.स. १२०७ ) का मिला है, जिसके पीछे यह संवत् अस्त हो गया. इसके वर्ष बहुधा बर्तमान लिखे मिलते हैं. १०-गुप्त संवत् इस संवत् के लिये शिलालेखादि में 'गुप्तकाल', 'गुसवर्ष भादि शब्द लिखे मिलते हैं जिससे पाया जाता है कि यह संवत् गुप्तवंशी किसी राजा ने चलाया हो. इस विषय का लिखित प्रमाण तो मष तक नहीं मिला, परंतु समुद्रगुप्त के अलाहाबाद के लेख में गुप्त वंश के पहिले दो राजामों (गुप्त और घटोत्कप) के नामों के साथ केवल 'महाराज'' बिरुद और घटोत्कच के पुत्र चंद्रगुप्त (पहिले) के नाम के साथ 'महाराजाधिराज' विरुद लिखा रहने तथा चंद्रगुप्त (प्रथम) के पौत्र और समुद्रगुप्त के पुत्र चंद्रगुप्त ( दूसरे ) के समय के गुप्त सं.८२ से ६३ तक के शिलालेखों के मिलने से विद्वानों का यह अनुमान है कि गुप्तवंश में पहिले पहिल चंद्रगुप्त (पहिला) प्रतापी राजा हुना हो और उसके राज्य पाने के समय से यह संवत् चला हो. गुप्तों के पीछे काठिमावास में सभी के ...: जि. १७, पृ. २१५. . . जि. १. पृ. २६६. ५ मानिसमा से लगा कर माघ के प्रारंभ के मासपास तक अर्थात् जमघरी मास के लगने से पहिले के कुछ महीनों में ही इ.स. और वर्तमान कलधुरि संवत् का अंतर २४८ रहता है पाकी अधिकतर महीनों में २४६ रहता है। ..करी से मिलामा ताम्रपत्र (केवरपरस मोफ बेस्टन विभा, पृ.५८). १. कमा . स. विजि . २९. प. १०२, मेट २७. ..: जि. १७. पू. २१५. टिप्पण ५. १. संवत्सराणामधिके एते तु विनिरन्यैरपि षडभिरेव । रालो दिने प्रौष्ठपदस्य षष्ठ गुप्तप्रकाले गणनां विधाय ........वर्षयतेष्टालिये गुप्तानां काल....(गिरनार के पास के अशोक के लेखवाले बदाम पर खुपे हुए स्कंदगुप्त के समय के लेख से. ती; गु. है। पू. ६०, ६१). मोरपी (काठिमावाद में) से मिले हुए गुप्त संवत् ५८५ के दानपत्र में पंचाशीत्या युतेतीते समानां सतपंचके । गौते दवाबदो नृपः सोपरागेकमंडले' (. जि. २.१ २५८). वर्षगते गुप्तानां सचत:पंचाशदुत्तरे भूमिम् । सासति कुमा गुप्ते मासे ज्येष्टे द्वितीयायाम् (सारनाथ से मिली हुई बुद्ध की मूर्ति के पासन पर का लेख. मं. कॉ. घों, पृ. २०३). गुप्तान समतिकांते सप्तपंचाशदुत्तरे । शते समाना पृथिवीं बुधगुप्ते प्रशासति ( सारनाथ से मिली हुई न की मूर्ति के पासन पर का लेख. मं. कॉ. बों; पृ. २०३). परिमाजक महाराज हस्तिन् के गुप्त संवत् १६१ के दानपत्र में 'एकनवत्युत्तरेन्दशते गुप्तनृपराज्यभुक्तौ श्रीमति प्रबर्धमानमहाचैत्रसंबवि)त्सरे माधमासबहुलपक्षतृतीयायाम् ' ( फ्ली; गु. ई. पू. १०७ ) लिखा मिलता है, मौर अपनी अपने मूल भरवी पुस्तक में गुबत्काल, या 'गुखितकाल' (गुप्तकाल) ही लिखता है (पली; गु.ई भूमिका, पृ. २९, १०) .. 'पिय 'महाराज' का प्रयोग सामंत के लिये होता था. मेयाड़ के गुहिल राजा अपराजित के समय के वि.सं. के लेख में उसको 'राजा' और उसके सेनापति बराहसिंह को 'महाराज' लिखा है (., जि.४, पृ. ३१), परंतु कौज प्रतिहारों के बामपनों मैं यही विष उन प्रबल स्वतंत्र राजानों के नामों के साथ लगामा भी मिलता है (ई.; जि. १५, पृ. ११२, १४०: , जि. ५, पृ. २११-१२). . क्ली; गु. पृ. २५. फ्ली; गु. पृ. ३१-३२. ... चंद्रगुप्त ( दूसरे)का सबसे पिला शिलालेख गुप्त संवत् ३ का और उसके पुत्र कुमारगुप्त (पहिले)का सब से पहिला शिलालेख गुप्त संवत् १६ का मिला है. जिससे चंद्रगुप्त (दूसरे) राज्य की समाप्ति गुप्त संपत् ५ के भासपास होनी चाहिये. गुम संवत् का प्रारंभ चंद्रगुप्त (पहिले) के राज्य पाने के समय से मानने से उन तीन राजाओं ( चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त दूसरे )का राजत्वकाल करीब ५ वर्ष मानना पड़ता है जो सरसरी तौर से देखने वालों को प्राधिक प्रतीत होगा परंतु तीन राजाओं के लिये यह समय अधिक नहीं है क्यों कि महर, जहांगीर और शाहजहां नवीन पादशाहो का राजत्वकाल १०१ (ई.स. १४४६-१६४८) वर्ष होता है. Aho! Shrutgyanam

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