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भारतीय संवत् सो विक्रम , जिसका नाम इस संवत् के साथ जुड़ा है, मालव जाति का मुखिया या राजा हो, अथवा चंद्रगुप्त (दूसरे) से पहिले का उससे भिन्न कोई राजा हो.
विक्रम संवत् का प्रारंभ कलियग संवत् के (५०१६-१९७५) ०४४ बर्ष व्यतीत होने पर माना जाता है जिससे इसका गत वर्ष १ कलियुग संवत् ३०४५ के बराबर होता है. इम संवत् में से ५७ या ५६ घराने से ईसवी सन् और १३५ घटाने से शक संवत् आता है. इसका प्रारंभ उत्तरी हिंदुस्तान में चैत्र शुक्ला १ से और दक्षिण में कार्तिक शुक्ला १ से होता है जिससे उत्तरी ( चैत्रादि ) विक्रम संवत् दक्षिणी ( कार्तिकादि ) विक्रम संवत् से ७ महीने पहिले प्रारंभ होता है. उत्तरी हिंदुस्तान में महीनों का प्रारंभ कृष्णा १ से और अंत शुक्ला १५ को होता है, परंतु दक्षिण में महीनों का प्रारंभ शुक्ला १ से और अंत कृष्णा अमावास्या को होता है. इस लिये उसरी विक्रम संवत् के महीने पूर्णिमांत और दक्षिणी के अमांत (दीत ) कहलाते हैं शुक्ल पक्ष तो उत्तरी और दक्षिणी हिंदुस्तान में एक ही होता है परंतु उत्तरी हिंदुस्तान का कृष्ण पक्ष दक्षिणी से १ महीना पहिले रहता है अर्थात जिस पक्ष को हम उत्तरी हिंदुस्तानवाले वैशाख कृष्ण कहते हैं उसीको दक्षिणवाले चैत्र कृष्ण लिखते हैं. काठियावाड़, गुजरात तथा राजपुताने के कुछ अंश में विक्रम संवत् का प्रारंम अाषाढ शुक्ला १(अमांत) से भी होता था जिससे उसको
प्राचीन होना प्रकट करता है इस लिये दंडी और गुणाढय दोनों छठी शताब्दी में हुए ऐसा वेवर पंडित ने किस आधार पर माना यह मालूम नहीं होता. श्रथवा प्रायः युरोपिअन् विद्वानों का यह स्वभाव ही है कि भारतवर्ष के प्राचीनतम ग्रंथों एवं उनके रचयिताओं को अर्वाचीन सिद्ध करने का जहां तक हो सके वे यत्न करते हैं और उनका प्राचीनत्य सिद्ध करने का रद प्रमाण मिल भी जावे तो उसको 'प्रक्षिप्त' कह कर अपने को जो अनुकूल हो उसीको आगे करते हैं (अर्थात ठीक बतलाते हैं) (बई के निर्णयसागर प्रेस का छपा हुआ 'कथासरित्सागर', नीसरा संस्करण, भूमिका, पृ.१)
1. 'ज्योतिर्विदाभरण' का कर्त्ता कालिदास नामक ज्योतिषी उक्त पुस्तक के २२ अध्याय में अपने को उज्जैन के राजा विक्रम का मित्र (श्लोक १६) और 'रघुवंश' आदि तीन काव्यों का कर्ता बतला कर ( मो. २०) गत कलियुग संवत् ३०६८ ( वि. सं. २४) के वैशाख में उक्त पुस्तक का प्रारंभ और कार्तिक में उसकी समाप्ति होना (श्लो. २३) लिखता है. उसमें विक्रम के विषय में यह भी लिखा है कि उसकी सभा में शंकु, वररुचि, मणि, अंशु, जिष्णु, त्रिलोचन, हरि, घरखर्पर और अमरसिंह आदि कवि (श्लो. ८); सत्य, वराहमिहिर, श्रुतसेन, यादरायण, मणिस्थ और कुमारसिंह आदि ज्योतिषी थे (श्लो ). धन्वन्तरि, क्षपएक, अमरसिंह, शंकु, वेतालमट्ट, घटसर्पर. कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि ये नब विक्रम की सभा के रत्न थे. उसके पास ३००००००० पैदल, १०००००००० सवार, २४३०० हाथी और ४००००० नाव धी (लो. १२), उसने ६५ शक राजा को मार कर अपना शक अर्थात् संवत् चलाया (श्लो. १३) और रूम वेश के शक । राजा को जीत कर उज्जैन में लाया परंतु फिर उसको छोड़ दिया' (लो. १७). यह सारा कथन मनघडंत ही है क्यों कि 'ज्योतिर्विवाभरण' की कविता मामूली है और रघुवंश आदि के कर्ता कविशिरोमणि कालिदास की अलौकिक सुंदरतावाली कविता के आगे तुच्छ है. ऐसे ही गत कलियुग संयत् ३०६८ (वि. सं. २४) में उक्त पुस्तक की रचना करने का कथन भी कृत्रिम ही है क्यों कि उसी पुस्तक में श्रयनांश निकालने के लिये यह नियम दिया है कि 'शक संवत् में से ४४५ घटाकर शेष में ६० का भाग देने से अयनांश आते हैं' (शाकः शराम्भोधियुगोनितो हृतो मानं खतरपनाशकाः स्मृताः।१११८). विक्रम संवत् के १३५ वर्ष बीतने पर शक संवत् चला था अत एव यदि वह पुस्तक वि. सं. २४ में बना होता तो उसमें शक संवत् का नाम भी नहीं होना चाहिये था. चास्तव में वह पुस्तक श. सं. १९६४ (वि. सं. १२६६ई. स. १२४२) के आसपास का बना हुआ है । देखो, शंकर बालकृमा दीक्षित का 'भारतीय ज्योतिःशाख', पृ. ४७६). ऐसी दशा में उक्त पुस्तक का विक्रमसंबंधी सारा कथन कल्पित ही मानना पड़ता है.
२. वास्तव में विक्रम संवत् का प्रारंभ कार्तिक शुक्ला १ से और शक संवत् का चैत्र शुक्ला से है. उत्तरी हिंदुस्तान के भी पंचांग शक संवत् के आधार पर बनने से उनमें वर्ष चैत्र शुक्ला १ से प्रारंभ होता है, जिससे वहांवालों ने पीछे से विक्रम संवत् का प्रारंभ चैत्र शुक्ला १ से भी मानना शुरू कर दिया हो. उत्तरी भारत के लेखों में संवत् दोनों तरह से (कार्तिकादि और चैत्रादि ) मिल पाते हैं. ई.स. की १२ वीं शताब्दी तक के लेखों में कार्तिकादि संवत् अधिक परंतु १३ वी से १६वीं शताब्दी तक के लेखों में वैशदि अधिक मिलते है (.एँ; जि. २०, पृ. ३६६).
.. 'पृथ्वीराजरासे में दिये हुए कितनी पक रनाओं के अशुद्ध संवतों का ठीक होना सिद्ध करने की खींचतान में स्वर्गीय पंडित मोहमलाल विष्णुलाल पंड्या ने पृथ्वीराज के जन्म संवत् संबंधी दोहे (एकादस से पंच दह विक्रम साक अनंद ! तिहि रिपु जय पुर हरन का भय प्रिथिराज नरिंद । मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या संपादित पृथ्वीराजरासा' श्रादिपर्व, पृ.१३%), के 'अनंद' शब्द पर से 'अनंद विक्रम शक' (संवन् ) की कल्पना कर लिखा है कि विक्रम साक अनन्दको
Aho 1 Shrutgyanam