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प्राचीनलिपिमाला. 'बापासादि। संवत्' कहते घे राजपुताने के उदयपुर आदि राज्यों में राजकीय विक्रम संवत् भव श्रावय कृष्णा (पूर्णिमांत) से प्रारंभ होता है.
--शक संवत् . सक संवत् के प्रारंभ के विषय में ऐसी प्रसिद्धि है कि दक्षिण के प्रतिष्ठानपुर (पैठण) के राजा शालिवाइन (सातवाहन, हाल ) ने यह संयत् चलाया कोई इसका प्रारंभ शालिवाहन के जन्म से मानते हैं. जिनप्रभसूरि अपने 'कल्पप्रदीप नामक पुस्तक में लिखता है कि प्रतिष्ठानपुर (पैठण) में रहनेवाले एक विदेशी ब्राह्मण की विधवा बहिन से सातवाहन (शालिवाहन) नामक पुत्र उत्पन्न हुधा. उसने उन के राजा विक्रम को परास्त किया. जिसके पीछे उसने प्रतिष्ठानपुर का राजा बन कर तापी नदीक का देश अपने अधीन किया और वहां पर अपना संवत् प्रचलित किया".
कम से अनन्द विक्रम क अथवा विक्रम अमंद साक करके उसका अर्थ करो कि नव-रहित विक्रम का शक अथवा विक्रम का नवरहित शक ः ह १००-६018 अर्थात् विक्रम का यह शक कि जो उसके राज्य के वर्ष 101 से प्रारंभ हुआ है। यही थोड़ी सी श्रे.: उत्पेक्षा (?) करके यह भी समझ लीजिये कि हमारे देश के ज्योतिषी लोग जो सैकड़ों वर्षों से यह कहते चले आते हैं और आज भी वृद्ध लोग कहते हैं कि विक्रम के दो संवत् थे कि जिनमें से एक तो अब तक प्रचलित है और दूसरा कुछ समय तक प्रचलित रहय अप्रचलित हो गया है.........अतएव विदित हो कि विक्रम के दो संवत् है। पक तो सनम्ब जो आज कल प्रचलित है और दूसरा आनन्द जो इस महाकाव्य में प्रयोग में पावा है '(पृथ्वीराहरासा. आदि प.पू. १३६). पं. मोहनलाल पंड्या का यह सारा कथन सर्वथा स्वीकार योग्य नहीं है क्योंकि रासे के 'अनंद' शब्द कामर्थ 'श्रानंददाराक 'या'शुभ' ही है जैसा कि भाषा के अन्य काव्यों में मिलता है उसको वास्तविक अर्थ में न लेकर 'विक्रम में राज्य के १० या ६५ वे वर्ष से चलनेवाला अनंद विक्रम संवत् 'अर्थ निकालना हठधर्मी से खाली नहीं है. ज्योतिषियों ने विक्रम के दो संबतो का होना कभी नहीं माना और न किसी वृद्ध पुरुष को ऐसा कहते हुए सुना. पं. मोहनलाल की यह कल्पना भी ठीक वैसी ही है जैसी कि 'राजप्रशस्ति' में खुदे हुए 'भाषारासापुस्तकेस्य' के 'भाष नगर प्राचीनशोधसंग्रह' में छपे हुए अशुद्ध पाठ 'भाषारासापुस्तकेस्य' पर से 'भीखारासा' नामक ऐतिहासिक पुस्तक की कृष्टि खड़ी कर दी गई. पं. मोहनलाल पंड्या के इस मनघत कथन के आधार पर डॉ. प्रीअर्सन (स्मि; अ. हि. है; पृ.४२, टिणण २), बी. ए. स्मिथ (स्मि; अ.हि. पृ. ३८७ टिप्पण २) और डॉ. धार्नेट ने ( वा; ए. ईपृ. १५) 'अनंद विक्रम संवत्'का ई. स. ३३ से चलना माना है परंतु हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि राजपुताने में विक्रम के दो संपतों का होना कभी माना नहीं गया, न यहां से मिले हुए शिलालेखो, दानपत्रों, हस्तलिखित पुस्तकों, भाटो तथा चारणों के लिए भाषा कविता के ग्रंथों या ख्यातों में कहीं भी अनंद विक्रम संवत् का उल्लेख मिलता है, न 'पृथ्वीराजरासे' के उपर्युकदोहे में 'अनंद विक्रम संवत्' की कल्पना पाई जाती है और न 'पृथ्वीराजविजय'महाकान्य से, जो चौहानों के इतिहास का प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तक है, वि. सं. १२२० (ई.स. ११६३ ) के पूर्व पृथ्वीराज का जन्म होना माना जा सकता है.
१. आषाढादि विक्रम संवत् शिलालेखों तथा पुस्तकों में मिलता है. अड़ालिज (अहमदाबाद से १२ मीस पर) की बाघड़ी के लेख में 'श्रामन्नपविक्रमसमयातीता(त)भाषाढादिसंवत् १५५५ वर्षे शाके १४९०....माघमासे पंचम्यां लिपी बुधवासरे' (.: जि. २८, पृ. २५१), डंगरपुर राज्य के रेसां गांव के पास के शिवमंदिर के लेख में-श्रामन(न)पविक्रमार्क(क)राज्यसमयातीतसंवत् १६ आपादादि २३ वर्षे याके १४८८ प्रवर्तमाने । युवास्पनाम्नि संवत्सरे....वैशाखमासे । कृष्णपक्षे । प्रतिपति(ति)या ! गुरुवासरे.' डुगरपुर राज्य से मिले हुए कई शिलालेखों में 'आषाढादि' संवत् लिखा मिलता है. 'प्रभासक्षेत्रतीर्थयात्राक्रम' नामक पुस्तक के अंत में-'संवत् १५ प्राषाढादि ३४ बरखे (वर्षे ) श्रावधशुदि ५ बू(भी)मे लिखा मिला है ( ई. में; जि- १८, पृ. २५१ )
२. त्र्यकेन्द्र(१४६३)प्रमिते वर्षे शालिवाहनजन्मतः । कृतस्तपसि मार्तडोऽयमलं जयतूद्गतः (मुहूर्तमार्तड, अलंकार, श्लोक ३). २. यह पुस्तक ई. स. १३०० के आस पास बना था. ४. ज. प. सो. बंध : जि. १०, पृ. १३२-३३.
* गगन पाणि पुनि द्वीप ससि ( १७२०) हिम रुत मंगसर मास । शुक्ल पक्ष तेरस दिने बुध वासर दिन जाम ॥२६६ ॥ मरदानो अरु महा बली अषरंग शाह नरिंद । तासु राज महिं हरखतूं रख्या शास्त्र अनंद ॥ २७॥ ( पराग के शिष्य रामचंद्र रचित 'रामविनोद' नामक पुस्तक ).
Ahol Shrutgyanam