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लेखनसामग्री
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शब्द मिलते है. वर्तमान लेखनशैली के अनुसार उनमें पदच्छेद अर्थात् प्रत्येक शब्द का अलग अलग लिखना नहीं मिलता परंतु पंक्ति की पंक्ति बिना स्थान छोड़े जिली जाती थी. कभी कभी शब्द अलग अलग भी लिखे मिलते हैं परंतु किसी नियम से नहीं. विराम के चित्रों के लिये hen एक और दो स्वड़ी लकीरों (दंड) का बहुधा प्रयोग होता था. रतोकार्ष पतताने अथवा शब्दों या वाक्यों को अलग करने के लिये एक, और श्लोकांत या विषय की समाप्ति के लिये दो खड़ी लकीरें बहुधा बनाई जाती थीं. कहीं कहीं प्रत्येक पंक्ति में भाषा या एक श्लोक दी लिखा हुआ मिलता है और कभी कबिताबद्ध लेखों में श्लोकांक भी पाये जाते हैं. कभी अंत में अथवा एक विषय की समाप्ति पर कमल फूल" या कोई अन्य चित्र भी खोदा जाना था. लेखक जय
मूलपेशियों के प्रारंभ में), 'स्वस्ति' ( लिपिपत्र १७ की मूलपंक्तियों के प्रारंभ में 'ओ' के सांकेतिक चिह्न के बाद), 'हरि श्रोम् स्वस्ति श्री' (जि. ए, पृ. १४ के पास का सेट ) आदि. विज्ञ से ) पंक्षियों के
(
1. 'सांकेतिक विसे नमः शिवाय' (सिपि २१ की पंक्रियों के प्रारंभ में), औसत नमो विष्णुये विचित्र २३ की पंक्रियों के प्रारंभ में), 'नमो अरहतो वर्धमानस्य ( लिपिपत्र की प्रारंभ में), 'ओ ( सांकेतिक चिना से ) औौ नमो वीतरागाय (राजपूताना म्यूजियम में हुए परमार राजा विजयराज के समय के वि. सं. ११६६ के शिलालेख के प्रारंभ में ) 'ओ ( सांकेतिक भिना से ) नमो बुद्धाय' (के.जि. १२. पु. २८ के पास का सेट) औ नमोरत्रयाय (शेरगढ का लेख ई. जि. १४, पृ. ४५) आदि लेखों के अंत में कभी कभी 'श्री', 'शुभं भवतु', 'श्रीरस्तु' आदि शब्द मिलते हैं और कभी कभी ' ॥ छ ॥' लिखा हुआ मिलता है. यह ''प्राचीन 'थ' अर का कांतर प्रतीत होता है जो वास्तव में धर्म या सूर्य का सूक होना चाहिये.
१. अशोक के देहली (ई. जि. १०. पू. ३०६ से ३ १० के बीच के सेट जि. १६, पृ. १२२ और १२४ के बीच के क्षेत्र ), रक्षा, मथिमा, रामपुरवा (ऍ. जि. ए . २५० से २५२ के बीच के सेट ), परिक्षा. निग्लिया .जि . पू. ७ के पास का मेट) और सारनाथ ( . इंजि. प. पू. १६८ के पास का सेट ) के स्तंभों के लेखो कालसी के बदाम की १ से ८ तक की धर्मशाऔ ( जि. २. पू. ४५० और ४४६ केवी के दो ट), एवं कितने एक अन्य लेखों में (मा. स. वे. ई: जि. ४. मेट ५१, संख्या ५, १०, १५, १६ सेट ४३ लेखसंख्या १३ १४: सेट ५४, लेख संख्या ११ ले ५३ ले संख्या ४. ई। जि. म. प्र. १७६ के पास का मेट, लेख) शब्दों या समासवाले शब्दों के बीना स्थान छोड़ा हुआ मिलता है.
इन विरामचिसी के लिये कोई निति नियम नहीं था की चिता आवश्यकता के लगाई जाती थी और कहीं आवश्यकता होने पर भी छोड़ दी जाती थीं. कहीं लेख की प्रत्येक पंक्ति के प्रारंभ में ( बेरावल से मिले हुए दशमी संवत् ६५७ केलेज में प्रत्येक पंक्ति के प्रारंभ में दो दो बड़ी लकीरें है। ऍ. इंजि. ३. पू. ३०६ के पास का लेट) और कहीं अंत में भी (अजमेर म्यूजियम में रक्सी हुरे चौहानों के किसी ऐतिहासिक काव्य की शिलाओं में से पहिली शिक्षा की बहुचा प्रत्येक पंक्ति के अंत में एक या दो बड़ी बड़ी है ऐसी लकीरें बिनाश्ता है. के
* हम विरामसूचक लकीरों में भी अक्षरों की नई सुंदर लाने का यह करना पाया जाता है. कहीं कड़ी लकीर के स्थान में अर्धवृत, कहीं उनके ऊपर के भाग में गोलाई या सिर की सी आड़ी लकीर और कहीं मध्य में घड़ी लकीर लगी हुई मिलती है.
मौरी
के नागार्जुनी गुफा के लेख की प्रत्येक पंक्ति में आधा ही है
और की गुफा के एक लेख ( भा. स. षे. ई. जि. ४. प्लेट ५६, लेखसंख्या ४ ) तथा गुलवाड़ा के पास की गुफा के घटक के लेख ( श्री. स. . जि. ४, प्लेट ६० ) में एक एक लोक ही खुदा है.
4. समुद्रगुप्त के अलाहाबाद के प्रशोक के लेखवाले स्तंभ पर खुदे हुए लेख के श्लोकबद्ध अंश में (ली: गु. : खेड १) तथा वालियर से मिले हुए प्रतिहार राजा भोजदेय के शिलालेख ( अ. स. ई. ई.स. १६०३-४, प्लेट ७२ ) में लोकांक दिये है. जोधपुर से मिले हुए प्रतिहार राजा वाक के लेख में जो राजपूताना म्यूज़ियम् (अजमेर में संघ के पूर्व कम
हुआ है. .जि. २,
परसाबगढ़ राजपूताने में ) से मिले हुए कनौज के प्रतिहार राजा महेंद्रपाल ( दूसरे ) के समय के वि. सं. १००३ (ई.स. १४३) के शिलालेख में, जो राजपूताना म्यूज़ियम् (अजमेर) में रखा हुआ है, ९४ वीं और ३० वीं पंक्तियों में इस (O) बने हुए हैं.
१. संतगढ़ (सिरोही राज्य में) से मिले हुए परमार राजा पूर्णपाल के समय के वि. सं. २०३२ (ई.स.१०४२) के शिलालेख के अंत में, तथा ऊपर जगह भिन्न भिन्न प्रकार के चित्र बने हुए हैं कितने एक लेखों के ऊपर के जाती हिस्सों में शिवलिंग, मंत्री पत्नी या चंद्र आदि के चित्र भी मिलते हैं.
है
श्रीमान विग्रहराज के हर्षनाथ के लेख की ३३ वीं पंक्ति में विषय की समाप्ति पर फूल खुदा है पृ. १२० के पास का भेट ).
Aho! Shrutgyanam