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प्राचीनलिपिमाला.
से हाशिये की दो दो लकीरें बनाई जाती हैं. ताडपत्रों पर लिखी हुई पुस्तकों में पंक्तियां सीधी लाने के लिये पहिले उनपर काली या रंगीन स्पाही की बहुत बारीक लकीरें खींच ली जाती थीं अथवा लोहे की पारीक तीखे गोल मुंह की कलम से उनके निशान कर लिये जाते थे. भूर्जपत्रों पर भी ऐसा ही करते होंगे.
कांबी ( रूल). इस समय स्याही की लकीरें खींचने के लिये गोल रूल का प्रचार हो गया है परंतु पहिल उसके लिये लकड़ी की गज़ (कथा) जैसी चपटी पट्टी काम में आती थी जिसके ऊपर और नीचे का एक तरफ का किनारा बाहर निकला हुमा रहता था. उसके सहारे लकीर खींची जाती थी. ऐसी पट्टी को राजपूताने के लेखक 'कांपी' (कंवा ) कहते हैं. वह रूल की अपेक्षा अच्छी होती है क्यों कि रूल पर जब स्याही लग जाती है तब पदि उसे पोछ न लिया जाये तो घूमता हुआ रूल नीचे के कागज़ को बिगाड़ देता है परंतु कांधी का वह अंश जिसके साथ कलम सटी रहती है बाहर निकला हुभा होने से कागज़ को स्पर्श ही नहीं करता जिससे उसपर लगी हुई स्याही का दारा कागज पर कभी नहीं लगता. पुस्तकलेखक तथा ज्योतिषी लोग लकीरें खींचने के लिये पुरानी शैली से प्रय तक कांधी काम में लाते हैं.
१. ताड़पत्रों पर पंक्तियां सीधी और समानांसर लाने के लिये खींची हुई लकीरों के लिये देखो, मेमॉयर्स ऑफ दी पशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल, जि. ५, प्लेट ३६.
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