________________
परिशिष्ट. भारतीय संवत्
भारतवर्ष के भिन्न भिन्न विभागों में समय समय पर भिनभिन संवत् चलते रहे जिनके प्रारंभ आदि का हाल जानना प्राचीन शोध के अभ्यासियों के लिये आवश्यक है, इस लिये उनका संक्षेप से विवेचन किया जाता है.
१
सप्तर्षि संवत् को लौकिककाल, लौकिक संवत्, शास्त्र संवत्र, पहाड़ी संवत्' या कथा संवत्' भी कहते हैं. यह संवत २००० वर्ष का कल्पित चक्र है जिसके विषय में यह मान लिया गया है कि महर्षि नाम के सात तारे अम्विनी से रंवमी पर्यंत २७ नक्षत्रों में से प्रत्येक पर क्रमशः सो सौ वर्ष तक रहते हैं २००० वर्ष में एक चक्र पूरा हो कर दूसरे चक्र का प्रारंभ होता है, जहां जहां यह संवत् प्रचलित रहा या है वहां नक्षत्र का नाम नहीं लिखा जाता, केवल १ से १०० तक के वर्ष लिखे जाते हैं. १०० वर्ष पूरे होने पर शताब्दी का अंक छोड़ कर फिर एक से प्रारंभ करते हैं. कश्मीर के पंचांग तथा कितने एक पुस्तकों में कभी कभी प्रारंभ से भी वर्ष लिखे हुए मिलते हैं. कश्मीरवाले इस संवत् का प्रारंभ कलियुग
1
संयत् शब्दका संक्षिप्त रूप है जिसका अर्थ वर्ष है कभी कभी इसके और भी संक्षिप्त रूप 'संघ', 'सं' या 'सव' और 'स' ( प्राकृत लेखों में ) मिलते हैं. संवत् शब्द को कोई कोई विक्रम संवत् का ही सूजक मानते हैं परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है. यह शब्द केवल 'वर्ष' का सूचक होने से विक्रम संवत्, गुप्त संवत् आदि प्रत्येक संवत् के लिये आता है और कभी कभी इसके पूर्व उक्त संवतों के नाम भी (विक्रम संवत्, बलभी संवत् आदि ) लिखे मिलते हैं. इसके स्थान में वर्ष, द, काल, शक आदि इसी अर्थवाले सब्दों का भी प्रयोग होता है.
सप्तर्षि नामक ७ तारों की कल्पित गति के साथ इसका संबंध माना गया है जिससे इसको 'सप्तर्षि संपत्
४. कश्मीर आदि में शताब्दियों के अंकों को छोड़ कर ऊपर के वर्षों के अंक लिखने का लोगों में प्रचार होने के कारण इसको 'लौकिक संवत्' या 'लौकिक काल' कहते हैं.
५. विद्वानों के शास्त्र संबंधी ग्रंथों तथा प्रयोतिःशास्त्र के पंचांगों में इसके लिखने का प्रसार होने से ही इसको शास्त्र संवत् कहते हों.
४. कश्मीर और पंजाब के पहाड़ी प्रदेश में प्रचलित होने से इसकी पहाड़ी संवत् कहते हैं.
5. इस संवत् के लिखने में शताब्दियों को छोड़ कर ऊपर के ही वर्ष लिखे जाने से इसे कम संवत् कहते हैं (मप) परदारादिक) युक्तास्पद नृणा
Q.
तया तु यो स्कंध १२
एकेक ये दो दिन निशितेन श्रध्याय २. लोक २७-२८. विष्णुपुराण, अंश ४. अध्याय २४, श्लोक ५३-५४ ) पुराण और ज्योतिष के संहिताग्रंथों में सप्तर्षियों की इस प्रकार की गति लिखी है वह कल्पित है. 'सिद्धांततरधिषेक' का कर्ता कमलाकर भट्ट भी ऐसी गति को स्वीकार नहीं करता (परमगतिरायन या कथित संहिता कायमेन हि पुरासदत्र तज्ज्ञातेन त प्रवृतः॥ सिद्धांतत्वविषेष महत्यधिकार श्लोक ३२).
श्रीसर्विचारानुमतेन तथाच संवत् १६ श्रीयाका १७१५ कर गतान्दा (द) १०२८ दिनगः ४१२०१० श्रीविक्रमादित्य १८५० गन्दा (वा) १२२) २३४७०५११०.... कलेव ४८६४ शेषवर्षाणि ४२७१०६ ( विक्रम संवत् १८५० का पंचांग, ई. जि. २०, पृ. २५० ).
४३५१
मंगलसरे) लिखितयन्याल जि. २०.
पू. १५१ )
Aho! Shrutgyanam