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प्राचीन लिपिमाला.
लिपिपत्र ५५ वें की मूल पंक्तियों' का नागरी अक्षरांनर
शिक्षौ)रोदम् मषितम् मनोभिरतुलम् (ल) देवासुरे दर्श हित्वाप्ति रामाद्रिरिव यस्तचाधिकम् (कं) राजते यो भोगि गोन्द्र निविष्टमूत्ति(सि) निशम् भूयो मतस्याये रखे []: सुर ) न्दवन्दितपत ( द ) बदम्बः स ( स )
लिपिपन ५६ व.
यह लिvिer visयवंशी राजा सुंदरपांडेय के श्रीरंगम के लेख', भालंपुंडि से मिले हुए विजयनगर के यादव राजा विरूपाक्ष के शक सं. १३०५ ( ई. स. १३८३) के दानपत्र' और वहीं के श्रीगिरिभूपाल के शक सं. १३४६ ( ई. स. १४२४) के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. इस लिपिपत्र में दिये हुए अक्षरों में से अ, आ, इ, उ, ऊ, ऋ, ए, ओ, क, ख, ग, घ, ङ, च, ज. ठ, ड, ए, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह और ळ वर्तमान ग्रंथ लिपि के उक्त अक्षरों से मिलते जुलते ही हैं. ई.स. की १४ वीं शताब्दी के पीछे थोड़ा सा और अंतर पड़ने पर वर्तमान ग्रंथ लिपि बनी. लिपिपत्र ५६ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर-
हरिः ओम् स्वस्ति श्रीः येनासौ करुणामनीयत दशां श्रीरंगपत्मा (आ) कर कृत्वा तम् भुवनान्तरप्रणयिनं करणा
१५ - कलिंग लिमि.
ई. स. की ७वीं से ११ वीं शताब्दी तक ( लिपिपत्र ५७ से ५६.
कलिंग लिपि मद्रास इहाते के चिकाकोल और गंजाम के बीच के प्रदेश में कलिंगनगर के गंगावंशी राजाओं के दानपत्रों में ई. स. की ७ वीं शताब्दी के आस पास से ११ वीं शताब्दी के आस पास तक मिलती है. इसका सब से पहिला दानपत्र, जो अब तक मिला है, पूर्वी गंगावंशी राजा देवेंद्रवर्मन का गांगेय संवत् ८७ का है. उसकी लिपि में मध्यप्रदेशी लिपि का अनुकरण पाया जाता है क्योंकि अक्षरों के सिर संदूक की आकृति के भीतर से भरे हुए, हैं और कई अचर समकोण वाले हैं ( देखो, ऊपर पू. ४४ ) पिछले दानपत्रों में अक्षर समकोणवाले नहीं किंतु पश्चिमी एवं तेलुगु-कनड़ी लिपि की नई गोलाईदार मिलते हैं और उनमें तेलुगु कनड़ी के साथ साथ कुछ ग्रंथ तथा नागरी लिपि का मिश्रण भी पाया जाता है.
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१. ये मूल पंक्तियां उददिरम के दानपत्र से है.
ऍ. ई. जि. ३. पृ. १४ के पास के सेट से.
पॅ.जि. ३, पृ. २२८ के पास के प्लेट ले.
जि.पू. ३१२ और ३१२ के बीच के प्लेटोले
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ये मूल पंक्तियां श्रीरंगम के लेख से हैं.
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