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१०७ प (५) से बिलकुल मिलते हुए हैं. कभी कभी अक्षरों की नाई अंकों के भी सिर बनाने से उनकी प्राकृतियां कहीं कहीं अक्षरों सी बनती गई.. पीछे से अंकचिह्नों को अक्षरों के से रूप देने की चाल बढ़ने लगी और कितने एक लेखकों ने और विशेषकर पुस्तकलेखकों ने उनको सिरसहित अक्षर ही बना डाला जैसा कि बुद्धगया से मिले हुए महानामन् के शिलालेख नेपाल के कितने एक लेखों तथा प्रतिहारवंशियों के दानपत्रों से पाया जाता है. तो भी १, २, ३, ५०, 10 और 80 तो अपने परिवर्तित रूपों में भी प्राचीन रूपों से ही मिलते जुलते रहे और किन्ही अक्षरों में परिणत न हुए.
शिलालेखों और ताम्रपत्रों के लेखक जो लिखते थे वह अपनी जानकारी से लिखते थे, परंतु पुस्तकों की नकल करनेवालों को तो पुरानी पुस्तकों से ज्यों का त्यों नकल करना पड़ता था. ऐसी दशा में जहां वे मूल प्रति के पुराने अक्षरों या अंकों को ठीक ठीक नहीं समझ सके वहां थे अवश्य चूक कर गये. इसीसे हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों में जो भंकसूचक अक्षर मिलते हैं उनकी संख्या अधिक है जिनमें और कई अशुद्ध रूप दर्ज हो गये हैं.
लिपिपत्र ७२ ( पूर्वार्द्ध की अंतिम तीन पंक्तियों) और ७४ ( उत्तरार्द्ध की अंतिम दो पंक्तियों) में हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों से अंकसूचक अक्षरादि दिये गये हैं वे बहुत कम पुस्तकों से हैं: भिन्न भिन्न हस्तलिखित पुस्तकों में वे नीचे लिखे अनुसार मिलते हैं
१-ए, स्व और #. २-वि, स्ति और न. इ-त्रि, श्री और म:, ४-५, ई, भा, एक, एक, एक, , कि (के), , , और पु. ५-तृ, तू, तो, ई, ह और नृ. ६-फ, फे, , प्र, भ्र, घे, व्या और फ्ल. ७-ग्र, ग्रा, ग्री, ग्ी गर्गा और भ्र. ८-इ, ई, हो और द. ह-श्री. ई, ई, उं, ऊँ, अ और . १०-लू, ल, ळ, एट, डा, अ और सी. २०-थ, था, थे, थो, घ, घे, प्व और व. ३०-ल, ला, ले और लो. ४०-स, र्स, ता, तो और न. ५०-8, 6.6.६0 और .
1. ली; गु. है: सेट ३६ A. २, फ्ली; गु. मेट ४६ A. . ई.एँ; जि. 1, पृ. १६३-८०.
. . : जि. ५, पृ २०६१ जि. १५, पृ. ११२ और १४० के पास के प्लेट: और राजपूताना म्युज़िसम में रक्खा दुमा प्रतिहार राजा महेंद्रपाल (दूसरे) के समय का वि.सं. १००३ का लेख. यह लेख मैंने 'पंपिमाफिमा इंडिका' मे छुपने के लिये भेज दिया है.
. 'सूर्यप्रनप्ति'नामक जैन ग्रंथ का टीकाकार मलयगिरि, जो ई. स. की १२वीं शताब्दी के मासपास मा, मूत पुस्तक के 'कू' शब्द को ४ का सूचक बतलाता है (पत्र समन्दोपादानात प्रासादरीया रस्यभेम पर मुह परचम रा सना -.; जि. ६. पृ.४७)
१. यह चतुरन चि उपध्मानीय का है (देखो, लिपिपत्र ४९). 'क' के पूर्ष इसका प्रयोग करना यही बतलाता है किसस समय इस चिश का ठीक ठीक हान नहीं रहा था.
+ 'क' के ऊपर का यह चिहन जिलामूलीय का है (देखो, क्षिपिपत्र १६).
Aho 1 Shrutgyanam