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प्राचीनलिपिमाला. पंडित भगवानलाल इंद्रजी ने इन अंकों के उनके सूचक शब्दों के प्रथम अक्षर होने न होने के विषय में कुछ न कह कर भारतवर्ष के प्राचीन अंकों के विषय के अपने लेख में ई. स. १७७ में लिखा है कि 'अंकों की उत्पत्ति के विषय में मेरा विश्वास है कि मैं निश्चय के साथ यह प्रतिपादन कर सकता कि पहिले तीन अंकों को छोड़ कर बाकी सब के सब अक्षरों पा संयुक्ताक्षरों के सूचक है
और भिन्न भिन्न वंशों के लेखों और [भिन्न भिन्न ] शताब्दियों में उन(अंको)की प्राकृतियों में जो अंतर पाया जाता है उसका मुख्य कारण उक्त समय और वंशों के अक्षरों का अंतर ही है..
डॉ. चूलर ने उस लेख के साथ ही अपनी संमति प्रकट करते समय लिखा है कि 'प्रिन्सेप का यह पुराना कथन, कि अंक उनके मूचक शब्दों के प्रथम अक्षर हैं, छोड़ देना चाहिये. परंतु अब तक इस प्रश्न का संतोषदायक मसाधान नहीं हुश्रा. पंडित भगवानलाल ने आर्यभट और मंशशास्त्र की अक्षरों द्वारा अंक सूचित करने की रीति को भी जांचा परंतु उसमें सफलता न हुई (अर्थात् अक्षरों क्रम की कोई कुंजी न मिली); और न मैं इस रहस्य की कोई कुंजी प्राप्त करने का दावा करता हूं. मैं केवल यही प्रतलाऊंगा कि इन अंकों में अनुनासिक, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय का होना ।ट करता है कि उन(अंकों को ब्राह्मणों ने निर्माण किया था, न कि वाणिश्राओं (महाजनों)ने र न बौद्धों ने जो प्राकृत को काम में लाते थे'२
मॉ. कर्न: ई. स. १८७७ में 'इंडिअन् ऍटिक्करी' के संपादक को एक पत्र के द्वारा यह सूचित किया कि 'मैं सामान्यतः बूलर के इस कथन से सहमत हूं कि अंक ब्राह्मणों ने निर्माण किये थे'.
ई. स १८७८ में बर्नेल ने लिखा कि 'अंकसूचक शब्दों के आदि अक्षरों से इन[अंक] पिनों की उत्पत्ति मानना बिलकुल असंभव है क्योंकि उनकी दक्षिणी अशोक (ब्राह्मी) अक्षरों से, जो अंकसूचक शब्दों के आदि अक्षर हैं, पिलकुल समानता नहीं है. परंतु बनल ने ब्राह्मी अक्षरों की उत्पत्ति फिनिशिअन् अक्षरों से होना तो मान ही रक्खा थाः इससे इन अंकों की उत्पत्ति भी बाहरी स्रोत से होना अनुमान करक लिखा कि 'इस (अंक) क्रम की इजिप्ट ( मिसर) के डेमोटिक अंकक्रम से सामान्य समानता, मेरे विचार में, इस कामचलाऊ अनुमान के लिये बस होगी कि अशोक के अंकक्रम की उत्पत्ति उसी (डिमोटिक् ) क्रम से हुई है, परंतु इसका विकास भारतवर्ष में हुआ है.
फिर इ.सी. बेले ने 'वर्तमान अंकों का वंशक्रम' नामक विस्तृत लेख में यह बतलाने का यत्न किया कि भारतीय अंकशैली का सिद्धान्त मिसर के हिएरोग्लिफिक अंकों से निकला है, तो भी भारतीय अंकचित्रों में से अधिकतर फिनिशिअन् , बाकादिअन् और अक्कडिअन् अंकों या अक्षरों से लिये हुए हैं; परंतु कुछ थोड़ेसों की विदेशी उत्पत्ति प्रमाणित नहीं हो सकती'.
इस पर ई. स. १८९६ में बेलर ने लिखा कि 'येले का कथन, यह मानने से बड़ी आपत्ति उपस्थित करता है कि हिंदुओं ने [अंक] भिन्न भिन्न चार या पांच स्रोतों से लिये, जिनमें से कुछ तो बहुत प्राचीन और कुछ बहुत अर्वाचीन हैं. परंतु उसके लेख के साथ प्रकट किया हुआ मिसर और भारत के अंकों के मिलान का नक्शा और उन दोनों में सैकड़ों के अंकों के बनाने की रीति की समानता के बारे में उसका कथन, भगवानलाल की कल्पना को छोड़ देने और कुछ परिवर्तन के साथ बर्नेल के कथन को, जिससे वार्थ भी सहमत है, स्वीकार करने को प्रस्तुत करता है. मुझे यह संभव मतीन
1.4; जि.६, पृ.४४. . ई.एँ जि. ६, पृ. ४८. ..एँ जि. ६, पृ. १४३. ४. सा... पू. ६०. ..प: सा. पे ... अ. रा. प. सो. (न्यू सीरीज़) जि.१४, पृ. ३३४ से मौर जि.१५, १.१ से.
Aho! Shrutgyanam