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भंक. होता है कि ब्राह्मी अंकों के चित्र मिसर के हिएरेटिक अंकों से निकले हैं और हिंदुओं ने उनका अचरों में रूपांतर कर दिया, क्योंकि उनको शब्दों से अंक प्रकट करने का पहिले ही से अभ्यास था तो भी ऐसी उत्पत्ति का विवेचन अभी तक बाधा उपस्थित करता है और निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता. परंतु दूसरी दो महत्व की बातें निभय समझना चाहिये कि
(१) अशोक के लेखों में मिलने वाले [अंकों के] भिन्न रूप यही बतलाते हैं कि इन अंकों का इतिहास ई स. पूर्व की तीसरी शताब्दी से बहुत पूर्व का है।
(२) इन चिकों का विकास ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा हुआ है क्योंकि उनमें उपध्मानीय के दो रूप मिलते हैं जो निःसंशय शिक्षा के आचार्यों के निर्माण किये हुए हैं '१.
ई. स. १८६८ में फिर कूलर ने डा. बर्नेल के मत को ठीक बतलाया परंतु उसमें इतना बदलने की संमति दी कि भारतीय अंक मिसर के डेमोटिक् क्रम से नहीं किंतु हिगरेटिक से निकले हुए अनुमान होते हैं, और साथ में यह भी लिखा कि 'डॉ. बर्नेज के मत को निश्चयात्मक बनाने के लिये ई. स. पूर्व की तीसरी और उससे भी पहिले की शताब्दियों के और भी [भारतीय ] अंकों की खोज करने, तथा भारतवर्ष और मिसर के बीच के प्राचीन संपर्क के विषय में ऐतिहासिक अथवा परंपरागत वृत्तान्त की खोज, की अपेक्षा है. अभी तो इसका सर्वथा अभाव है और यदि कोई मिसर के अंकों का भारत में प्रचार होना बतलाने का यत्न करे तो उसको यही अटकल लगाना होगा कि प्राचीन भारतीय नाविक और व्यापारी मिसर के अधीनस्थ देशों में पहुंचे होंगे अथवा अपनी समुद्रयात्रा में मिसर के व्यापारियों से मिले होंगे. परंतु ऐसी अटकल अवश्य संदिग्ध है जयनक कि उसका सहायक प्रमाण न मिले.'
इस तरह डॉ. पर्नेल भारतवर्ष के प्राचीन शैली के अंकों की उत्पत्ति मिसर के हिमोटिक अंकों से; बेले उनका क्रम तो मिसर के हिएरोग्लिफिक अंकों से और अधिकतर अंकों की उत्पत्ति फिनिशिश्नन्, याकट्रिनन् और अकेडिअन् अंकों से, और बूलर मिसर के दिएरेटिक अंकों से बना लाता है. इन विद्वानों के कथनों का भारतीय अंकों के क्रम और माक्रतियों से मिलान करने से पाया जाता है कि
हिएरोग्लिफिक प्रकों का क्रम भारतीय क्रम से, जिसका विवेचन ऊपर पृ. १०३-४ में किया गया है, सर्वथा भिन्न है, क्योंकि उसमें मूल अंकों के चित्र केवल तीन, अर्थात् १.१० और १००थे. इन्हीं तीन चिकों को वारंवार लिखने से 8 तक के अंक बनते थे. १ से १ तक के अंक, एक के अंक के चिक (खड़ी लकीर) को क्रमशः १ से बार लिखने से बनते थे. ११ से १६ तक के लिये १० के चिक की याई ओर क्रमशः १ से १ तक खड़ी लकीरें खींचते थे. २० के लिये १० का चिक दो बार और ३० से १० तक के लिये क्रमशः ३ से 8 बार लिखा जाता था. २०० बनाने के लिये १०० केचि को दो बार लिखने थे, ३०० के लिये तीन चार आदि (देखो, पृ.११३ में दिया हमा नकाशा). इस क्रम में १००० और १०००० के लिये भी एक एक चित्र था और १००००० के लिये
ई. पे, पृ. ८२. १. सहसा संक्या । पू. १५६ (द्वितीय संस्करब ). इससे पूर्व जल पुस्तक से जहां जहां इवाले दिये हैं वे प्रथम संस्करण से है.
...वि शि. १७.६२४.
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