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भाबीमालिपिमासा. और पितामह इन पांच सिखात अंधों का तो करणरूप से वर्णन किया है और लादाचार्य (माटदेष), सिंहाचार्य, सहाचार्य के गुरु( जिसका नाम नहीं दिया ), भार्यमट', मयुम्न' और विजयनंदिन के प्रसंगवयात् नाम तथा मत दिये हैं, जिससे पाया जाता है कि ये ज्योतिष के भाचार्य पंचसिद्धांतिका' की रचना से पूर्व के हैं, परंतु खेद की बात यह है कि न तो पराइ. मिर के वर्णन किये हुए पांच सिद्धांतों में से एक भी भय उपचौर , मार्यभट (प्रथम)के सिवाय काटाचार्य मादि किसी प्राचार्य का कोई ग्रंथ मिलता है, जिससे उनकी अकोली का निर्णय हो सके. इस समय 'पुविधसिद्धांत' नामक कोई ग्रंप उपलध नहीं है परंतु महोत्पल ने वराहमिहर की बहत्संहिता की दीका में की जगह पुलियसिखात' से बचन बद्धृत किये हैं और एक स्थला में 'भूजविणसिद्धांत' के नाम से एक रखोक भी उदत किया है. उन दोनों में अंक वर्तमान शेखी से ही मिलते हैं. इससे पाया जाता है कि वराहमिहर से पूर्व भी इस शैली का प्रचार था. ययाती (यूसफजई जिले, पंजाब में) गांव से अंकगणित का एक
पर निखाइमा प्राचीन पुस्तक जमीन से गहामा मिला है जिसमें अंकनबीन शेती से ही दिये हैं. प्रसिद्ध विशन डॉ. होर्नले ने उसकी रचना का काम ई. स. की तीसरी अथवा चौथी शताब्दी होना अनुमान किया है. इस पर डॉ. मूलर ने लिखा है कि 'पदि हॉर्नेले का अंकगणित की प्राचीनता का यह बहुत संभावित अनुमान ठीक हो तो बस [ अंककम ] के निर्माण का समय ई.स.के प्रारंभकास अथवा उससे भी पूर्व का होगा'.अभी तक तो नवीन शेती के अंकों की प्राचीनता का यहीं तक पता चलता है.
है. पंपोजाबाको शाखाहीशाररंग (पंच०१३). १. बागचादरोशी समनपुरे चासो । ठमरने का विचार रिमायोऽमितिः (१४१४), १. पनामा निभिरभि र मारासबवे रिकप्रति नगारपाभा (१४1). ४. प्रजा भूसनये नोचे पीरजरी (१४८).
५. जो 'सूर्यसिद्धांत' इस समय उपलब्ध है महबरामिहर का वर्णन किया हुमा नाम का सिद्धांत नहीं किंतु उससे भिन्न और पिछता है.
६. आर्यभर (प्रथम) ने, जिसका जन्म. स. ४७६ में ( कॉ. प. ३४.. सग.त; पू. २) हुमा था, 'आर्यभटीय' (मार्यसिद्धांत ) नामक ग्रंथ बमाया, जिसको गॉ. कर्म ई.स. १८७४ में हॉलर देशम नगर मै पपवाया है. उसमें अंकन तो शब्दों में और न को में दिये है किंतु सर्पब मरों से दिये हैं जिनका क्रम नवीन शैली से ही है.
. शिसोपाः परिवारमा: ( २५-४११) परममियभिमरपिरनमेंदुभिः (१२) निब शंकर बालकमा दीक्षितरचित 'भारतीय ज्योतिम्धारण, पृ. १२) मादिः ये पचन 'पुखिसिद्धांत' से मोस्पत में उपत किये है. मानिसमापिने परिपाः (१५ )। भानो मेरे परितो बहिना (पही, पृ. ११३). यह बचन महोत्पल के अनुसार, 'मलपुलिशसिद्धांत' से है.
१. ए.८२. मि.के ने ई.स. १९०७ के एशिमाटिक सोसाटी बंगाल के जर्मन में (पृ.४७५-५०८) नोट्स भोन अन् मेंथेमेटिक्स' (भारतीय गणितशाल पर टिप्पण) नामक विस्तृत लेख में यह बतलाने का यत्न किया है कि भारतीय गणित शास्त्र अब तक जितना प्राचीन माना गया है उसमा प्राचीन नहीं है और उसी लेख में भारतवर्ष के मधीन शली के (वर्तमान) अंको के विषय में लिखा है कि हम पूर्ण सत्यता के साथ कह सकते हैं कि विमों के गणित शास्त्र भर में ई. स. की दसवीं शतादी के पूर्व नवीन शली के (वर्तमान)अंकों के व्यवहार की कल्पना का तनिक भी चिकनहीं मिलता'(पृ.४६३). मि. के के पूस कथन में कुछ भी यास्तविकता नहीं है केवल हठधर्मी ही है क्योकि ई. स.कोठी शताबी के प्रारंभ के आचार्य वराहमिहर *
- दियन गरिरममदारमतीन पिसमा (पंचसिद्धांतिका १२१५). समापिर(२०)सायं कासमपाच परम.. कसारीपतिः।), रोमन यशात लिपि (N)मात पंw.in)परिषीमात् । सरकतें रिपो(५७मनामध्यमासः (पं. सि . रमन दोधाकापंचपकः १८५.) । दिदिम(PANभासाः परविवार (२६५४७) प्रहयाः (पं. सिं१ । १५), रामाशात मुनयः शामिपी हिरे सपनो परिक्षा ( २५९६ ) कायम राम्पा (बागहीसंहिता, समर्पिचार, श्लोक ३ ). क्या उपर्युक्त उदाहरण, जिनमें कई जगह शून्य (.)का भी प्रयोग हुमा है. वराहमिहर के समय अर्थात् ई. स. की छठी शताम्दी के प्रारंभ में नवीन शैली के अंको का प्रचार होना नहीं पतलाले!
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