________________
१०॥
प्राचीनलिपिमाला. १००-मामाघाट के लेख में इस अंक का चिहन'सु' अथवा 'म' से मिलता हुआ है क्यों कि उक्त दोनों अक्षरों की प्राकृति उस समय परस्पर बहुत मिलती हुई थी. पिछले लेखों में सु. स,से,स्रो औरों से मिलते हुए रूप मिलते हैं, परंतु नासिक के लेखों और क्षत्रपों के सिकों में सके जो रूप मिलते हैं उनकी उस समय के किसी अक्षर से समानता नहीं है.
२००-अशोक के लेखों में मिलनेवाले इस अंक के तीन चिहनों में से पहिला 'सु' है, परंतु दुसरे दो रूप उस समय के किसी अक्षर से नहीं मिलते. नानाघाट के लेख का रूप 'आ' के समान है. गुप्तों बादि के लेखों का दूसरा रूप 'ला' से मिलता हुमा है और भिन्न भिन्न लेखादि से खद्भुत किये हुए इस अंक के दो रूपों में से दूसरा 'सू' से मिलता है. नासिक के क्षेलों, सपों के सिकों, वसभी के राजाबों तथा कलिंग के गंगावंशियों के दानपत्रों में मिलनेवाले इस अंक के रूप किसी अक्षर से नहीं मिलते.
३००-का अंक १..के अंक की दाहिनी ओर २ बाड़ी या गोलाईदार लकीरें लगाने से बनता है. १०० के सूचक अक्षर के साथ ऐसी दो लकीरें कहीं नहीं लगती, इसलिये इसकी किसी मात्रासहित प्रचर के साथ समानता नहीं हो सकती. ४०० से १०० तक के चिन, १०० के चिह्न के भामे ४ से 8 तक के अंकों के जोड़ने से बनते थे, उनकी अक्षरों से समानता नहीं है.
१०००-का चिहन नानाघाट के लेख में 'रो' के समान है. नासिक के लेखों में 'धु' अथवा '' से मिलता हुमा है और वाकाटकवंशियों के दानपत्रों में उनकी लिपि के 'चुके समान है.
२०००और ३००.के चिन, १००० के चिहन की दाहिनी ओर ऊपर को क्रमशः एक और दोभाड़ी लकीरें जोड़ने से बनते थे. इसलिये उनकी किसी अचर से समानता नहीं हो सकती. ४००० से १००० तक के अंक, १००० के चिहन के आगे क्रमशः ४ से ६ तक के, और १०००० से १०००० तक के अंक, १०००के भागे १० से १० तक की दहाईयों के चिहन जोड़ने से बनते थे इसलिये उनकी अक्षरों से समानता नहीं है.
अपर प्राचीन शैली के अंकों की जिन जिन अक्षरों से समानता बतलाई गई है उसमें सब के सब बचर उत अंकों से ठीक मिलते हुए ही हों ऐसा नहीं है. कोई कोई अक्षर ठीक मिलते
बाकी की समानता ठीक वैसी जैसी कि नागरी के वर्तमान अक्षरों के सिर हटाने के बाद उनका मागरा के वर्तमान अंकों से मिलान करके यह कहा जाय कि २ का अंक 'र' से, ३ 'स' से, ५ '५' से, ६ 'ई' से, ७ 'उ' की मात्रा से और 'ट' से मिलता जुलता है. १, २, ३, ५०.० और १.के प्राचीन उपलब्ध रूपों और शोक के लेखों में मिलनेवाले २०० के दूसरे व तीसरे रूपों (देखो, लिपिपत्र ७४) से यही पाया जाता है कि ये चिड्न तो सर्वथा अधर नहीं थे किंतुकही थे. ऐसी दशा में यही मानना पड़ेगा कि प्रारंभ में १ से २००० तकसपक चारतब में कही थे. यदि अक्षरों को ही भिन्न भिन्न अंकों का सूचक माना होता तो उनका कोई क्रम अवश्य होता और सब के सब अंक अक्षरों से ही बतलाये जाते, परंतु ऐसा न होना यही पतलाता है कि प्रारंभ में ये सब अंक ही थे. अनायास से किसी अंक का रूप किसी अक्षर से मिल जाय यह बात दसरी है। जैसे कि वर्तमान नागरी का २ का अंक उसी लिपि के ''से, और गुजराती के २(२) और ५ (५) के अंक वक्त लिपि के र (२) और
१. एक, दो और तीन के प्राचीन चिश तो स्पष्ट ही संख्यासूचक हैं और भन्योक की लिपि में बार का चित्र जो'' साक्षर से मिलता हुमागासंभव है किचौराहे या स्वस्तिक का सूचक हो. ऐसे ही और अंकों के लिए भी कोई कारणपोगा.
Aho! Shrutgyanam