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प्राचीनलिपिमाला.
२०० के लिये १००का मित्र लिख उसकी दाहिनी मोर, कभी ऊपर कभी मध्य और कभी नीचे की तरफ़ाडी (सीधी. तिरछी या वक) रेखा जोड़ी जाती थी'३०० के लिये १०० के चित्र के साथ वैसे हीदोलकीरें जोड़ी जाती थीं. ४००से१०० तक के लिये १०० का चिन्ह लिख उसके साथ क्रमशः४ सेह मक के अंक एक छोटी सी पाड़ी लकीर से जोड़ देते थे. १०१ से ६६६ तक लिखने में सैंकड़े के अंक के आगे दहाई और इकाई के अंक लिखे जाते थे, जैसे कि १२६ के लिये १००,२०,83; ६५५ के लिये १००,५०,५. यदि ऐसे अंकों में दहाई का अंक नहीं हो तो सैंकड़े के बाद इकाई का अंक रवा जाता था, जैसे कि ३०१ के लिये ३००,१. (देखो, लिपिपत्र ७५ में मिश्र अंक).
२००० के लिये १००० के चिह की दाहिनी ओर ऊपर को एक छोटीसी सीधी बाड़ी (या नीचे को मुडीई) लकीर जोड़ी जाती थी और ३०००के लिये वैसी ही दो लकीरें. ४००० से १००० तक और १०००० से १०००० तक के लिये १००० के षिक के आगे ४ से 8 तक के और १० से १० तक
के चित्र क्रमश: एक छोटी सी लकीर से जोड़े जाते थे (देखो, लिपिपत्र ७५), ११००० के वास्ते '१००००लिख, पास ही १००० लिखते थे. इसी तरह २१००० के लिये २००००, १००० १६...
के लिये १००००, १००० लिखते थे. ऐसे ही 88888 लिखने हो तो १००००, १०००,६००, ६०, लिखते थे. यदि सैकड़ा और दहाई के अंक न हो तो हजार के अंक के आगे इकाई का अंक लिखा जाता था, जैसे कि ३००१ लिखना हो तो ६०००, १.
___ उपर्यक प्राचीन अंकों के चिहीं में से १, २, और ३ के चिक तो क्रमशः --- और = आड़ी. लकीरें हैं जो अब तक व्यापारियों की बहियों में रुपयों के साथ आने लिखने में एक, दो और तीन के लिये व्यवहार में पाती हैं. पीछे से इन लकीरों में वक्रता आने लगी जिससे १ की लकीर से वर्तमान नागरी आदि का बना, और २ तथा ३ की वक्र रेखाओं के परस्पर मिल जाने से वर्तमान नागरी आदि के २और के अंक बने हैं. बाकी के चित्रों में से कितने एक अक्षरों से प्रतीत होते हैं और जैसे समय के साथ अक्षरों में परिवर्तन होता गया वैसे ही उनमें भी परिवर्तन होता रहा. प्राचीन शिलालव
और दानपत्रों में से १००० तक के चिह्नों के, अक्षरों से मिलते हुए, रूप नीचे लिखे अनुसार पाये जाते है
-अशोक के लेखों में इस अंक का चिह'क' के समान है. नानाघाट के लेख में उसपर गोलाईदार या मोगदार सिर बनाया है जिससे उसकी आकृति 'क' से कुछ कुछ मिलती होने लगी है. कुशनवंशियों के मथुरा आदि के लेखों में उसका रूप 'क' जैसा मिलता है. क्षत्रपों और मांधवंशियों के नासिक आदि के लेखों में एक ही विशेष कर मिलता है परंतु उन लेखों से उद्धत किये हुए चिंकों में से चौथे में 'क' की स्वड़ी लकीर को बाई तरफ मोड़ कर कुछ ऊपर को चढ़ा दिया है जिससे उसकी प्राकृति 'प्कृ सी प्रतीत होती है. पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्कों में 'क' की दाहिनी ओर मुड़ी हई खड़ी लकीर, चलती कलम से पूरा चिझ लिग्वने के कारण, 'क' के मध्य की प्राडी लकी से मिल गई जिससे उक्त सिक्कों से उद्धन किये मिहीं में से दो अंतिम चिक्रों की प्राकृति 'म के ममान बन गई है. जग्गयपेट के लेखादि से उदत किये ए चिन्हों में चार के चिक के एक और 'म रूप मिलते हैं; गुसों आदि के लेग्नों में भी एक और से ही मिलते हैं. पल्लव और शालकायन वंशियों के दानपत्रे किये ६ चिन्हों में से पहिला 'क' दसरा प्कीनीसरा और चौथा एक,
। यह रीति र स ला लिपिक के पनाही भी लगाई जातीपणा में 1०००)
१. यह रीति स पूर्व की दूसरी शताब्दी और उसके पीछ के ईशलावादिमिलनी अशा कलेला में संस कुछ भिन्नता पाई जाती है (देखो लिपिपत्र के पूर्व में अशोक के लम्खों सदिय दुध २०७ अंक के तीन रूप).
२. पिले लेखों में कहीं की रहनकार नहीं भी लगाई जाती थी (दखो, लेपिपत्र के उत्तराई में मिस मित्र लेखों से उजत किये हुए अंकों में और 30 तथा प्रतिहारकवानपत्रों में 100.)
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