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खरोष्ठी लिपि.
लकीर है जो प्रचर के ऊपर के भाग या मध्य को काटती हुई लगती है (देखो, ६, कि, स्त्रि, चि, शि, हि.णि. ति, मि. शि और सि). 'उ' की मात्रा सीधी आड़ी या घुमावदार लकीर है जो अचर के नीचे के अंत (या कभी कुछ ऊंचे) से बाई ओर जुड़ती है (देखो, उ, गु, बु, तु, धु, नु, यु, और हु). 'ए' की माला एक तिरछी या खड़ी लकीर है जो बहुधा अचर के ऊपर के भाम के साथ और कभी कभी मध्य में ऊपर की तरफ जुड़ती है (देखो, ए,जे, ते, ने, दे.ये और षे) 'भो' की मात्रा एक तिरछी रेखा है जो बहुधा अक्षर के मध्य से बाई ओर को झुकती हुई लगती है (देखो, ओ, थो, नो, मो और सो, परंतु 'यो' में उसका झुकाव दाहिनी ओर है), अनुस्वार का चिझ एक माड़ी सीधी या वक्र रेखा है जो बहुधा अक्षर के अंत भाग से सटी रहती है (देखो. अ, धं, रं, और पं) परंतु कभी कभी अक्षर की खड़ी लकीर के अंत से कुछ ऊपर उक्त खड़ी लकीर को काटती हई भी लगती है (देखो, त्रं, नं और हं). 'म' (प्रथम) के साथ का अनुस्वार का चिक 'म' से विलग नीचे को लगा है, 'म (दूसरे) में दाहिनी ओर भिन्न रूप में जुड़ा है और यं के साथ उसके दो विभाग करके 'य' की नीचे को झुकी हुई दोनों तिरछी रेखाओं के अंतों में एक एक जोड़ा है. इन लेखों में रेफ कहीं नहीं है. रेफ को या तो संयुक्ताक्षर का दसरा अक्षर बनाया है (जैसे कि 'सर्व को 'सन) या उसको पूर्व के अक्षर के नीचे 'र' के रूप से जोड़ा है (प्रियदशी' को 'प्रियदशि', 'धर्म' को 'भ्रम आदि). संयक्ताचर में दसरे 'र' के लिये एक भाड़ी, तिरछी या कुछ गोलाईदार लकीर है जो व्यंजन के नीचे के अंत के साथ दाहिनी ओर जुड़ती है, परंतु कहीं कहीं पर का योग न होने पर भी ऐसी लकीर अधिक जुड़ी हुई मिलती है जिससे यह संदेह रह जाता है कि कहां यह अनावश्यक है और कहां ठीक है ('प्रियद्राशि पढ़ें या पियदशि'; 'सत्रप्रपंडनिया 'सवपषंडनिश्रादि). संयताधिरों में कहीं कहीं भिक वणों के रूप स्पष्ट नहीं हैं (देखो, स्त्रि). लिपिपत्र ६५ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर
देवनं प्रियो प्रियदशि रय समाप)पंडनि अनि च पुजेति दनेन विविधये च पुजये नी घुसथदन व पुत्र व देवनं प्रियो मजति यथ किति सलवढि सिय सबप्रापघंडनं मलवढि तु
लिपिपत्र ६६ घा. यह लिपिपत्र ग्रीक (यूनानी), शक. पार्थिअन् और कुशनवंशी राजाओं के सिको' से नय्यार किया गया है. ग्रीकों के सिक्कों से लिये हुए अक्षरों में कहीं कहीं 'त', 'द और 'न' में स्पष्ट
बिलकुल नहीं लगाते अथवा बिना किसी विचार के उनका प्रयोग करते हैं अर्थात् जहां मात्रा की भावश्यकता नहीं होती वहां कोई भी मात्रा लगा देते है और जहां मात्रा की अपेक्षा रहनी है वहां उसे या नो छोर जान हैं या अशुद्ध मात्रा लगा देते हैं. एसी लिखावटों के अक्षरों को राजपूतानावाले कवळा अक्षर (केवल अक्षर संकेत) कहते है और पुरानी महाजनी लिस्वाद विशेष कर पेसी ही मिलती है. ऐसी लिखावटों से ही 'काकाजी अजमेर गया' (ककज अजमर गय) के स्थान में काकाजी माज मर गया' पढ़े जाने की कथा प्रसित है.
१. देलो, ऊपर पृष्ठ ६८ टिप्पण .. ये मूल पंक्तियां अशोक के शहबाज़गढ़ी के लेख से हैं (ई.ई: जि. १ पृष्ट १६ के पास के प्लेट से).
१. प्रीको (यूनानियों के सिक्के-गा . कॉ. श्री सी. कि. पा. : मेट ४-१५. मिः : कें. कॉ..म्यु: प्लेट ५.६. बहाः कॅ. कॉ. पं. म्यु; प्लेट १.६. शक, पार्थिअन् और कुशनचांशयों के सिक-गा: कॅ. कॉ. पी.सी. किं. वा.ई: प्लेट १६-२३५ सि . का.. म्यु: प्लेट ८-८. व्हा . कॉ. पं. म्यु : प्लेट १०-१७.
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