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प्राझी लिपि.
के लेखों में इसका प्रचार ई. स. की १६वीं शताब्दी के पीछे तक किसी प्रकार मिल पाता है. दक्षिण में इसको 'नंदिनागरी' कहते हैं. प्राचीन नागरी की पूर्वी शास्वा से बंगला लिपि निकली, और नागरी से ही कैथी, महाजनी, राजस्थानी (राजपूताने की) और गुजराती लिपियां निकली हैं.
४. शारदा-इस का प्रचार भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों अर्थात् कश्मीर और पंजाब में रहा. ई.स. कीसवीं शताब्दी के राजा मेरुवर्मा के लेखों से (देखो लिपिपत्र २२वां) पाया जाता है कि उस समय तक तो पंजाब में भी कुटिल लिपि का प्रचार था, जिसके पीछे उसी लिपि से शारदा लिपि बनी. उसके जितने लेख अब तक मिले हैं उनमें सब से पुराना लेख सराहां (पंचा राज्य में) की प्रशस्ति है, जोई.स.की दसवीं शताब्दी की अनुमान की जा सकती है. इसी लिपि से वर्तमान करमीरी और टाकरी लिपियां निकली हैं और पंजाबी अर्थात् गुरमुखी के अधिकतर अक्षर भी इसीसे निकले हैं.
५. बंगला-यह लिपि नागरी की पूर्वी शाखा से ई.स. की१० वीं शताब्दी के पास पास निकली है. बदाल के स्तंभ पर खुदे हुए नारायणपाल के समय के लेख में, जो ई.स. की १० वीं शतान्दी का है, बंगला का झुकाव दिखाई देता है. इसीसे नेपाल की ११ वीं शताब्दी के पाद की लिपि, तथा वर्तमान पंगला, मैथिल और उडिया लिपियां निकली हैं.
दक्षिणी शैली की लिपियां प्राचीन ब्राधी लिपि के उस परिवर्तित रूप से निकली हैं जो चत्रप और आंध्रवंशी राजाओं के समय के लेग्वों में, नथा उनसे कुछ पीछे के दक्षिण की नासिक, काली आदि गुफाओं के लेखों में पाया जाता है.
दक्षिणी शैली की लिपियां नीचे लिखी हुई हैं----
१. पश्चिमी-यह लिपि काठिावाड़, गुजरात, नासिक, खानदेश और सतारा जिलों में, हैदराबाद राज्य के कुछ अंशों में, कौंकण में तथा कुछ कुछ माइसोर राज्य में, ई.स.की पांचवीं शताब्दी के भास पास से नवीं शताब्दी के पास पास तक मिलती है. ई. स. की पांचवीं शताब्दी के आस पास इसका कुछ कुछ प्रचार राजपूताना तथा मध्य भारत में भी पाया जाता है. इसपर उत्सरी लिपि का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है. भारतवर्ष के पश्चिमी विभाग में इसका अधिकतर प्रचार होने के कारण इसका 'पश्चिमी' यह नाम कल्पित किया गया है
२. मध्यप्रदेशी-यह लिपि मध्यप्रदेश, हैदराबाद राज्य के उत्सरी विभाग, तथा बुंदेलखंड के कुछ हिस्सों में ई. स. की पांचवीं शताब्दी से लगा कर आठवीं शताब्दी के पीछे तक मिलती है. इस लिपि के अक्षरों के सिर चौकुंटे या संदूक की सी प्राकृति के होते हैं जो भीतर से बहुधा वाली, परंतु कभी कभी भरे हुए भी, होते हैं. अक्षरों की प्राकृति बहुधा समकोणषाली होती है, अर्थात् उनके बनाने में प्राड़ी और खड़ी रेखाएं काम में लाई गई हैं, न कि गोलाईदार, इस लिपि के तानपन्न ही विशेष मिले हैं, शिलालेख बहन कम.
३. तेलुगु-कमी-यह लिपि बंबई इहाते के दक्षिणी विभाग अर्थात् दक्षिणी मराठा प्रदेश, शोलापुर, बीजापुर, बेलगांव, धारवाड़ और कारवाड़ जिलों में, हैदराबाद राज्य के दक्षिणी हिस्सों में, माइसोर राज्य में, एवं मद्रास इहाते के उत्तर-पूर्वी विभाग अर्थात् विज़गापहम् , गोदावरी, कृष्णा, कर्नूल, पिलारी, अनंतपुर, कडप्पा, और नेल्लोर जिलों में मिलती है. ई. स. की पांचवीं शताब्दी से १४ वीं शताब्दी तक इसके कई रूपांतर होते होते इसीसे वर्तमान तेलगु और कनडी लिपियां बनीं. इस इसका नाम तेलुगु-कनकी रक्खा गया है.
४, ग्रंथलिपि-यह लिपि मद्रास इहाने के उत्सरी व दक्षिणी प्रार्कट, सलेम्, ट्रिचिनापली, मदुरा और तिनेवेल्लि जिलों में मिलती है. ई.स की सातवीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी तक इसके कई रूपांतर होते होते इससे वर्तमान ग्रंथलिपि बनी और उससे वर्तमान मलयालम और तुलु लिपियां
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