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प्राचीफलिपिमाला. लिपिपत्र १७ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अचरांतर
ओं स्वस्ति जयपुरात्परम्माहेश्वरः श्रीमहाराजलक्ष्म. रणः कुशली फेलापर्वसिकाग्रामे प्राह्मणादीन्प्रतिपासिकटुम्बिनः समाज्ञापयति विदितं वोस्त यथेष ग्रा. मो मया मनापिन्त्रीराममश्च पुरयाभिवृदये कौत्सस
७-कुटिल लिपि,
१.स.की छठी से नवी शताम्ली । लिपिपत्र
२३).
ई. स. की छठी से नवीं शताब्दी तक की बहुधा सारे उसरी भारनवर्य की लिपि का, जो गुलिपि का परिवर्तित रूप है, नाम 'कुटिललिपि कल्पना किया गया है. 'कुटिलाक्षर नाम का प्राचीन प्रयोग भी मिलता है परंतु वह भी उसके वणों और विशेष कर मात्राओं की कुटिल प्राकृतियों के कारण रखा गया हो ऐसा अनुमान होता है इस लिपि के अक्षरों के सिर बहुधा - ऐसे होते हैं परंतु कभी कभी छोटी सी पाडी लकीर से भी वे बनाये जाते हैं. अ, श्रा, घ, प, म, घ, ष और 'स'का ऊपर का अंश दो विभागवाला होता है और बहुधा प्रत्येक विभाग पर सिर का चिन्ह जोड़ा जाता है.
पह लिपि मंदसोर मे मिले हुए राजा यशोधर्मर के लेखों', महानामन के बुद्धगया के लेखों',
१. ये कुल पंकियां पाली गांव से मिले हुए महाराज लक्ष्मा के दानपत्र (.:जि.२, पृ. ३६४ के पास के पलेट) से उबुत की गई हैं.
२. देवल (युक्त प्रदेश में पीलीमीत से २० मील पर) गांव से मिली हा वि.सं. २०४६ (ई.स. १९२) की प्रशस्ति में 'कृटिलाशराणि' (विनाहर मनोनच शिक्षिका मौन रनि । कटिहाराणि पिदुमा शादित्याभिधाम । पं. जि. १, पृ२१) और विकमांकदेवचारस में 'कुटिललिपिभिः' (नो कापश्यैः करिधिभिम गिद १८.४२) लिखा मिलता है. उनसे कुटिल' शब्द क्रमशः अक्षरों तथा लिपि का विशेषण है. परंतु उनमें उस समय की नागरी की, जो कुटिल से मिलती हुई थी, 'कुदित संशा मानी है. मेवान के गुहिलवंशी राजा अपराजित समय की वि.स.७१८ (ई.स. ६६१)की प्रशस्तिके अपरोको विकटाक्षर'कहा है (पोभन पूटमुरकीक विकरा . जि. ५, पृ. ३२), और अपद के लेख में (पली: गु. लेखसंख्या ५२) 'विकाक्षराणि' लिखा मिलता है. 'विकट' और 'कुटिल' दोनो पर्याय है और अक्षरों की प्राकृति के सूखक है.
.. मुटिललिपि में अक्षरों की खड़ी रेखाएं नीचे की तरफ़ बाई मोर मुड़ी हुई होती है और स्वरों की मात्रा अधिक रेटी मेवी तथा संधी होतीसी से उसका नाम कुटिल पदा.
राजा यशोधर्मन् तीन सेलमंदसोर से मिले हैं जिनमें से एक मानव(पिकम) सं. ५८L (NA)का पली; गु. ग्लेड २१ B,C, और २२). ___ महानामम् नामवाले दो लेख पुरगया से मिले हैं (फली। गु.। प्लेट ४१ A और B) जिनमें से एक में सषत् २६६ है. यदि यह गुम संवत् माना जाये तोरसका समय सम-होगा.
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