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प्राचीनलिपिमाला. राथा कई अन्य लेखों में ; एवं जापान के होर्युजी नामक स्थान के बौद्ध मठ में रक्खी हुई 'प्रज्ञापारमिताइदपसूत्र' और '
उपविजयधारणी तथा मि. नाचर की प्राप्त की हुई हस्त लिखित पुस्तकों में भी मिलती है.
लिपिपत्र १ बा
यह लिपिपत्र मंदसोर से मिले हुए राजा यशोधर्मन् (विष्णुबर्द्धन) के मालव (विक्रम ) मं. ५८६ (ई. स. ५३२) के शितालेख से तरयार किया गया है. इसमें 'अ' वर्तमान दक्षिणी शैली के नागरी 'अ से मिलता हश्रा है. 'श्री' पहिले पहिल इसी लेख में मिलता है. 3.च, ड. द. न. द, न, प, म, र, ल. प.स और 'ह' अक्षरों के रूप वर्तमान नागरी के उल्ल अक्षरों से मिलने जुलते ही हैं. हलंत व्यंजनों को सिरों की पंक्ति से नीचे नहीं किंतु सस्वर व्यंजनों के साथ समान पंक्ति में ही लिखा है परंतु उनके सिर उनम जुड़े हुए नहीं किंतु विलग ऊंचे धरे हैं और त्'केवीचे मागरी की उ की मात्रा का साचिन और बढ़ा दिया है. 'श्रा की मात्रा तीन प्रकार की मिलती है जिनमें से एक प वर्तमान नागरी की 'आ' की मात्रा से मिलता हुआ है (देखो. ना, मा), 'इ' को मात्रा धार कार से लगी हैं जिनमें से एक वर्तमान नागरी की 'इ' की मात्रा के समान है (दखो, 'कि', 'ई' की मात्रा का जो म्प इस लेख में मिलता है उसका अंत नीचे की तरफ़ और बढ़ाने से वर्तमान नागरी की 'ई' की मात्रा बन जाती है (देखो, 'की'). 'उ' और ' की मात्राएं मर्ग के समान हो गई है। देखो. दु. रु., वृ.), 'ए' की मात्रा नागरी से मिलती हुई है परंतु अधिक लंबी और कुटिल प्राकृति की है. (देखा, 'ने'). 'ऐ' की मात्रा की कहीं नागरी
माई दो तिरछी. परंतु अधिक लंबी और कुटिल, रेखाए मिलती हैं और कहीं एक वैसी रेखा और दूसरी व्यंजन के सिर की बाई तरफ नीचे को झुकी हुई छोटी सी रेखा है ( देखो, 'मैं'), 'श्रो' की मात्रा कहीं कारी से किसी प्रकार मिलती हुई है (देखो. तो, शो). 'क्ष' में ' और 'ष', और 'ज्ञ में ' और 'अस्पष्ट पहिचान में आते हैं लिपिपत्र १८ वे की मूल पंसियों का नागरी अक्षरांतर---
अथ अयति अनेन्दः श्रोयशोधर्मनामा प्रमदयनमिवान्तः शता च)सैन्यं विभाह्य व्रणतिस लयभइँयोजभूषां विधत्ते तरुणतरुलतावद्दौरकौौविनाम्य । श्राजी जितौ विषयते जगतौम्पुनश्च श्रीविष्णवईनमराधिपतिः स एव प्रख्यात औलिकरलाञ्छन अात्मअशो(वंश) येनादितो दिमपदं गमितो गरौयः ॥ प्राचा नपानसुबहतश्च मनुदोचः सामा युधा च वशगान्प्रविधाय येन नामापरं
(प. जि. ४, पृ. ३१०), ग्वालियर से मिले हुए तीन लखो में से एक वि. स. १३२(ई.स. ८७४ | का (प.जि. १, पृ. २४६-७),सरा वि.सं. १३३ (ई.स ८७७) का (प.ई. जि. २:पृ. १६० के पास का प्लेट। और तीसरा बिना संबन का(प्रा.स .स. १९०३-४, प्लेट ७२और पहोत्रा से मिला हुमा हर्ष संपन् २७६ । ई.स.८८२) का लेख
प्रतिहार वंशी राजा भोज के लेखों तथा उसके पीछे के महेन्द्रपाल (प्रथम), महीपाल, प्रादि के लेखों की लिपियों में कई म्पट अंतर नहीं है तो भी लिपियों के विभागों के कल्पित समय के अनुसार मोजदेष (प्रथम 'तक के लेखों की लिपि की गणगा कुरिललिपि में करनी पड़ी है.
..मामाइन सीरीज़) जि. १. भाग ३रा . आ. स.(पीरअस सीरीज़ जि. २२वी. १. पली; गु.ई: प्लेट २२.
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