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ग्रंथ लिपि लिपिपत्र ५०चे की मल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर
एषां वंशे रघुणां क्षितिपतिरभवजयश्शीर्य के लि(लि)स्फजखमा सतोप्रतिकरटिघटाशातनो बेसराजः । चके विकासबाहुस्तदनु व. सुमतीपालनं मोलभूपस्तत्पुत्रो रुद्रदेवस्तदपरि च सपोत्तंसरत्नं बभूव ॥ ततस्तत्सोद
लिपिपत्र ५३ वा. यह लिपिपत्र दोनेडि से मिले हुए पीठापुरी के नामयनायक के शक सं. १२५६ (ई. स. १३३७ ) के दानपत्र, वनपल्ली से मिले हुए अन्नम के दानपत्र तथा कोंडवी से मिले हुए गाणदेव के शक सं. १३७७ के दानपत्र से तय्यार किया गया है. वनपल्ली और कोंडवीडु के दानपत्रों से मुख्य मुख्य अक्षर दिये गये हैं. दोनेडि के दानपत्र के क, प्र (ज्ञ में ), द, प, फ, व और हमें थोड़ा सा परिवर्तन होने से वर्तमान कनड़ी और तेलुगु लिपियों के वे ही अत्तर बने हैं.
चे जो उलटे अर्धग्रस का सा चिह्न लगा है वह 'क'और 'पका अंतर बतलाने के लिये ही है. पहिले उसका स्थानापन्न चित्र 'फ' के भीतर दाहिनी ओर की बड़ी लकीर के साथ मटा रहता था ( देखो, लिपिपत्र ४८, ४६, ५०) और वर्तमान कनड़ी तथा तेलुगु लिपियों में उसका रूप शंकु जसी प्राकृति की बड़ी लकीर में बदल कर अक्षर के नीचे लगाया जाता है. अनुस्वार अक्षर के ऊपर नहीं किंतु आगे लगाया है. ई. स. की १४ वीं शताब्दी के पीछे भी इस लिपि में और थोड़ा सा अंतर पड़ कर वर्तमान कनड़ी और तेलुगु लिपियां बनी हैं. यह अंतर लिपिपत्र ८० में दी हुई लिपियों का लिपिपत्र ५१ से मिलान करने पर स्पष्ट होगा. लिपिपत्र ५१वें की मृल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर--
श्रोउम्युि)मामहेश्रराभ्यां न(न)मः । पायाछः करिवदनः कुलोतनिजदानस्तुताविवालिगणे । निमदशि मुहरपिधत्ते क(िगो) यः कन(ण)तालाभ्यां ॥ श्रीविष्णुरस्तु भवदिष्टफलप्रदा
१४-ग्रंथ लिपि ई. स. की ७ वी शताब्दी मे (लिपिपत्र ५२ से ५६ ).
इस लिपि का प्रचार मद्रास इहाते के उत्सरी व दक्षिणी प्रार्केट, सलेम, द्विचिनापली, मदुरा और निवेल्लि जिलों में तथा द्रावनकोर राज्य में ई.स की सातवीं शताब्दी के पास पास से
, ये मूल पंक्तियां चबालू के लेख से हैं. १. ' जि.५, पृ. २६५ और २६७ के बीच के प्लेटों से. ०. .: जि. ३, पृ. ६२ और ६३ के बीच के प्लेटों से. . ई. जि. २०, पृ. ३६२ और ३६३ के बीच के प्लेटों से ५. ये मूल क्लियां नामरनायक के दोमेडि के दानपत्र से हैं.
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