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कुटिल लिपि प्रगति कान्तमदो दरापं गाजाधिराजपरमेश्वर इत्युदृढम् । खिग्धश्यामाम्बुदाभैः स्थगितदिनकृतो यञ्चमामाञ्यधुमेरम्मी मेध्यं
लिपिपत्र १६ बां. यह लिपिपत्र 'उष्णीषविजयधारणी' नामक ताड़पत्र पर लिखी हुई पुस्तक के अंत में दी हुई पूरी वर्णमाला', मि. यावर के प्राप्त किये हुए प्राचीन हस्तलिम्वित पुस्तकों, मौखरी शर्ववर्मन् की आसीरगढ़ से मिली हुई मुद्रा', मौखरी अनंतवर्मन् के २ लेखों तथा महानामन के बुद्धगया के लेख' से तय्यार किया गया है. 'उष्णीषविजयधारणी' के अंत की वर्णमाला के अक्षरों में अ, उ, ऋ, क, व, ग, घ, ङ, च, ज, ट, ड, ढ, ण, त, थ, द, न, प. म, य, र, ल, ब, श,ष, स और 'ह'नागरी के उन
दरों से बहुत कुछ मिलतेहए हैं और 'व' तथा'ब में भेद नहीं है. इ की तीन बिंदियों में से नीचे की बिंदी को वर्तमान नागरी के 'उ की मात्रा का सा रूप दिया है. इ का यह रूप ई.स. की १३ वीं शतान्दी नक कहीं कहीं मिल पाता है. 'ऋ', 'ऋ', 'ल और 'तृ' पहिले पहिल इसी में मिलने हैं. वर्तमान नागरी के 'ऋ' और 'ऋ' इन्हीं से बने हैं परंतु वर्तमान 'ल' और 'लू' के मूल संकेत मन हो चुके हैं जिससे अब 'ल के साथ 'ऋ' और 'ऋ' की मात्राएं लगा कर काम चलाया जाना है, 'ओ की आकृति नागरी के वर्तमान ' से मिलती हुई है परंतु उसका सिर बाई तरफ अधिक लंबा हो कर उसका बांया अंत नीच को मुड़ा है. 'श्री' का यह रूप पिछले लेखों तथा प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों में भी मिलता है और कोई कोई लेखक अब तक 'ओं लिखने में
ऊ के ऊपर रेफ तथा अनुस्वार लगा कर इस प्राचीन 'ओ' की स्मृति को जीवित रखते हैं. ', 'ज और 'टके सिरों के दाहिनी तरफ के अंत में + चिक लगाया है. वह अथवा उसका परिवर्तित रूप पिछले लेखों में मिलता है (देखो, लिपिपत्र २१, २३, २४, २८, २8.. ३१,३२, ३, ३४). वर्तमान नागरी के 'ऊ में, 'हु की आकृति बना कर उसके मागे विंदी लगाई जानी है जो इसी चिह का स्थानांतर है और 'ङ' तथा 'ड की प्राकृति एकसा बन जाने पर उन अक्षरों का भेद बतलाने के लिये ही लगाई जाने लगी है. 'ओं का सांकेतिक चिह नागरीके के अंक सा है जो वास्तविक ‘ओं' नहीं किंतु कल्पित चिझ है. यह कई रूपांतरों के साथ पिछले लेखों तथा प्राचीन जैन, बौद्ध और ब्राह्मणों के हस्तलिखिन पुस्तकों के प्रारंभ में मिलता हैं.
महानामन् के लेख में 'ऊ को उके साथ चिक जाड कर बनाया है परंतु अन्यत्र बहुधा समकोणवाला नहीं किंतु गोलाईदार चिक मिलता है जिसका अग्रभाग नीचे की ओर झुका हश्रा होना है (देखा, इसी लिपिपत्र में उष्णीषविजयधारणी के अंत की वर्णमाला का 'क' और लिपिपत्र २४, २५. २८. ३१.३४, ५ में भी). 'त्'का रूप उपर्युक्त यशोधर्मन् के लेख (लिपिपत्र १८ में) के'त का सा ही है परंतु इसमें सिर की गाड़ी लकीर को दाहिनी ओर झुका कर बहुत नीचे बड़ा लिया है संभव है कि नागरी का वर्तमान हलंत का चिक इसीमे निकला हो और व्यंजन के ऊपर लिग्वे जाने की अपेक्षा नीचे लिखा जाने लगा हो. 'ये', 'य' से मिलना हमा है और रेफ को पंक्ति से ऊपर नहीं किंतु सीध में लिखा है और ये मथा 'य' में भेद बतलाने के लिये ही 'य' के नीचे के दाहिनी
ओर के अंश को गोलाई के साथ ऊपर बढ़ाया है. ऐसा ही 'र्य अन्य लेखों में भी मिलता है (देखो, लिपिपत्र १७, २०, २१, २२, २८, २६),
। '. ऑ: (आर्यन् सीरीज़ ) जि. २, भाग ३, पले. १-४. .. मा. स.ई. (पीरिअल सीरीज़ सि.२२ वी के कई प्लेट. . स्ली: गु. . पली: गु लेट ३१ A और B.
१ फली : गु. है। प्लेट ४५A.
प्लेट ३० A
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