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मागरी लिपि
लिपिपत्र २४ वा. यह लिपिपत्र मारपी से मिले हुए राजा जाइंकदेव के गुप्त संवत ५८५ (ई. स. १०४ ) के दानपत्र', अलवर से मिले हुए प्रतिहार राजा विजयपाल के समय के बि. स. २०१६ (ई. स. ६५६) के शिलालेख' और नेपाल से मिली हुई हस्तलिखित पुस्तकों से तय्यार किया गया है. जाइकदेव के दानपत्र के अक्षरों की प्राकृति कुटिल है परंतु लिपि नागरी से मिलती हुई ही है, केवल ख, घ, छ. ड, थ, ध, न, फ और म अक्षर पर्नेमान नागरी से कुछ भिन्न हैं. लिपिपत्र २४ वें की मुलपंक्तियों का नागरी अक्षरांतर
पष्टिवरिष वर्षसहस्राणि स्वर्गे निति भूमिदः । श्रालेता [चानुमंता च तान्येव नरकं वसेत् । स्वदत्तां परदत्ता वा यो हरेतुन) वसुंधरा । गर्वा शससहसस्य इ(ह)तुः प्राप्नोनि कित्वि(ल्बि)षं ॥ विंध्याटवीष्व
लिपिपत्र २४ बां.
यह लिपिपत्र छिंदवंशी लल्ल के वि. सं. २०४६ (ई.स. १६२) के देवल कं लेन' सं, परमार राजा भोजरचित 'कृर्मशतक' नामक दो काव्यों से, जो धार से शिलाओं पर खुदे हए मिले हैं, और परमार राजा उदयादित्य के समय के उदयपुर तथा उजन' के लेखों से, तय्यार किया गया है देवल के लेख में 'अ नागरी का सा बन गया है क्योंकि उसकी खड़ी लकीर के नीचे के अंत में याई ओर से तिरछी रेखा जोड़ी है. यही तिरछी रेखा कुछ काल के अनंतर 'अ' की घाईनरफ़ की तीन तिरही लकीरों में से तीसरी बन गई जो वास्तव में अक्षर में सुंदरता लाने के विचार से जोड़ी जाती थी. कर्मशतक के अक्षरों में 'ई' और 'ई' में ऊपर की दो बिंदियों के बीच की पत्र रेखा, उन्हींके नीचे की तीसरी बिंदी के स्थानापन्न ७ चिह के अंत का बाई तरफ से दाहिनी नरमायदा हुना घुमाव, एवं 'ऊ' और 'ओ' के नीचे के भागव. वैसा ही पुमाव, केवल सुंदरता के विचार से ही है. उदयादित्य के उदयपुर के लेख में 'इ' की जो आकृति मिलती है वह तीन बिंदीवाले इका रूपानर है और उसे सुंदर बनाने के विचार से ही इस विलक्षण रूप की उत्पत्ति हुई है. उदयादित्य के उज्जैन के लेख के अंत में उस समय की नागरी की पूरी वणमाला, अनुस्वार, निसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय के चिहां सहित खुदी है, जिसस ई. स. का ११वी शताब्दी में ऋ, ऋ,ल और लू के रूप कैसे थे यह पाया जाता है.
१. ई.: जि. २, पृ. २५८ के पास का प्लेट. १. उदयपुर निवासी कुंवर फतहलाल मेहता की भेजी हुई उक्त लेख की छाप से. ___. ए. पेप्लेट ६, प्राचीन अक्षरों की पंक्ति ७ से..
६० भिन्न भिन्न लेखकों की लेखम शैली भिन्न मिलती है. कोई सरल अक्षर लिखता है तो कोई टेढ़ी मेढ़ी प्राकृति के अर्थात् कुटिल. पेसी दशा में लिपिविभाग निश्चय रूप से नहीं हो सकते.
४. ये मूल पंक्तियां जाकदेव के उपर्युक्त दानपत्र से है. .ए. जि.१, पृ. ७६ के पास का प्लेट. . पं. जि. ८. पृ. २५% और २६० के बीच के ३ प्लेट. ८. . जि १, पृ. २३४ के पास का प्लट.
१. उज्जैन में महाकाल के मंदिर के पोहे की एक छत्री में खड़ी हुई शिला पर खुदा दुई प्रशस्ति भी अपने हाथ से तय्यार की दुई छाप से.
यह शिला उदयादित्य के समय की किसी प्रशस्ति की अंतिम शिला है जिसमें ८० के पीछे के घोड़े से श्लोक है. समे संषत् नहीं है, परंतु पत्थर का जो अंश खाली रह गया उसपर प्रशस्तिलेखक के हाथ से ही लिखी हुई पूरी वर्णमाला तथा नाग के प्रथिल चित्र के भीतर धातुओं के प्रत्यय आदि खुदे है जैसे कि धार से मिले हैं) और अंत के नाक में "सदादिलदेरस नामशरिका "खुदा है जिससे डङ्ग प्रशस्ति का उदयादित्य के समय का होना पाया जाता है.
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