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गुप्त लिपि
लिपिपत्र १६ वा. __यह लिपिपत्र गुप्तवंशी राजा समुद्रगुप्त के अलाहाबाद के स्तंभ के लेग्य से तरयार किया गया है. इसमें 'इ' का चिर दो चिंदियों के आगे एक खड़ी लकीर है. 'उ' की खड़ी लकीर में वक्रता है और नीचे की बाड़ी लकीर गोलाई के साथ दाहिनी तरफ ऊपर की ओर मुड़ी है, जैमा कि दक्षिणी शैली की लिपियों में पाया जाता है. इ. द.त.द.प.भ, म और 'ष' (पहिले) के रूप नागरी से कुछ मिलने लगे हैं. ष (दूसरे) और 'म' रूपों की प्राकृतियां कुछ विलक्षण है. लिपिपत्र १६ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अनगंतर
महाराजश्रीगुप्तप्रपौत्रस्य महाराजश्रीघटेात्कचपीवस्य महाराजाधिराजश्रीचन्द्र गुप्तपुत्रस्य लिच्छविदीहिचस्य महादेव्यां कुमार३. यामुल्फा त्यसस्य महाराजाधिराजश्रौसमुद्रगुप्तस्य सर्कथिवीविजयजनितोदयव्याप्तनिखिलायनितमा कीर्तिमिताम्वदशपतिवनगमनावातललि/डि-लि)तसुखविचरणामाचष्ठाण व भुवो बाहरयमुच्छ्रितः स्तम्मः यस्य । गदानमुजविलमप्रशमशास्त्रवाक्योदयैरुप[परिस
याच्छ्रितमनेकमार्ग यश: पुनाति भुवनयं पशुपतेर्जटान्तर्गहा
लिपिपत्र १७ वा. यह लिपिपत्र गुप्तों के राजस्वकाल के उदयगिरिर, मिहरोली, बिलसद', करंडांडा और कुहार के शिलालेखों तथा महाराज लक्ष्मण और जयनाथ के दानपयों से प्यार किया गया है और इसमें कंवल मुख्य मुरूप अक्षर ही उद्धत किये गये हैं. उदयगिरि के लेख में पहिले पहिल जिह्वामूलीय और उपध्मानीय के चित्र मिलते हैं, जो क्रमश: 'क' और 'पा' के ऊपर उक्त अक्षरों से जुड़े हुए लगे हैं. मिहरोली के लेख में कितने एक अक्षर समकोणवाले हैं. 'स्थि' और 'स्पे' में 'स की आकृति कुछ विलक्षण हो गई है. ऐसे ही 'स्थि में थ अक्षर का रूप 'छ' से मिलता हुआ है न कि ' से. बिलसद के लेख में स्वरों की उन मात्राओं में, जो अक्षरों के ऊपर लगती हैं, अधिक विकास पाया जाता है और उन्हीं के परिवर्तन से कुटिल लिपि में उनके विलक्षण लंबे रूप यने हैं. रंडांडा के लेख में 'म की आकृति विलक्षण बनाई है. महाराज लक्ष्मण के पाली गांव के दानपत्र में कहीं कहीं सिरों तथा खड़ी, आड़ीया तिरछी लकीरों के अंतिम भाग को चीर दो हिस्से बनाकर अक्षरों में संदरता लाने का यत्न किया है. 'म' के नीचे के ग्रंथिवाले हिस्से को पाई सरफ बढ़ा कर लंबी लकीर का रूप दिया है और 'ब्र में 'र' को नागरी की' की मात्रा के समान ग्रंथिल बनाया है. जयनाथ के दानपत्र में 'इकी तीन बिंदिनों में से ऊपर की चिंदी के स्थान में आड़ी लकीर बनाई है. ''के इसी रूप के परिवर्तन से पीछे से नागरी की 'इ' बनी है (देखो लिपिपत्र ८२ में है की उस्पति). तोरमाण के कुड़ा के लेख के अक्षरों में 'ग' की गई तरफ की खड़ी लकीर को बाई ओर ऊपर की तरफ मोना लिससे उक्त अचर का रूप वर्तमान नागरी के 'ग से मिलता हुना बन गया है, केवल सिर की आड़ी लकीर का ही अभाव है.
। पसी।गु. पोट१. २. पली: गु प्ले ट(A). .. पली; गु. प्लेट २१ (A) ४. क्लीपोट... .शि.१०.७१के पासपोर. ६. . जि. १, पृ. २४० मा पोट. ...समरा दानपा-६ जि. २, पृ. १६४ पासका क्षेट; और जयनाथ का हारपत्र-पसी.फोर.
Ano! Shrutgyanam