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प्राचीनलिपिमाला. सांची के लेख के 'की' में 'ई' की मात्रा की दोनों लड़ी लकीरों को दाहिनी भोर झुकाया है.
हाथीगुंफा के लेख में अक्षरों के सिर बनाने का यत्न पाया जाता है परंतु वे वर्तमान नागरा अक्षरों के सिरों जैसे लंबे नहीं किंतु बहुत छोटे हैं. ये सिरे पहिले पहिल इसी लेख में मिलते हैं. 'मि' और और 'लिं' में 'इ' की माला भरहुत स्तूप के उपर्युक्त 'वि' के साथ लगी हुई' की मात्रा के सहा है और 'बी' में 'ई'की मात्रा की दाहिनी मोर की खड़ी लकीर को भी वैसा ही रूप दिया है. 'ले' में 'ल' के अग्रभाग को दाहिनी ओर नीचे को झुकाया है और 'गो' में 'मो' की मात्रा नानाघाट के लेख के 'थो के साथ की 'ओ' की मात्रा की माई व्यंजन के ऊपर उसे स्पर्श किये बिना एकहीमाडी लकीर के रूप में धरी है. लिपिपत्र तीसरे की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर
'सुगनं रजे रओ गागौपुतस विसदेवस पौतेख गोतिपुप्तस श्रागरजुस पुतण वारिपुतेन धनभूतिन कारितं तारना(ण) सिलामता र उपण. धंमस नमो इंदस नमी संकंसनवासुदेवानं रंदख......मा...तानं चतुंनं र लोकपालानं यमवरमकुबेरवासवामं नमो कुमारवरस वेदिसिरिस र...
लिपिपत्र चौथा. यह लिविपन्न महिमोलु के स्तूप से निकले हुए पत्थर के ३ पात्रों के ढलानों पर खुदे हुए हैं लेखों से तथा स्फरिक के एक छोटे से टुकड़े पर, जो वहीं से मिला था, खुदे हए लेख से तय्यार किया गया है. 'अ' मे 'सं' तक के अक्षर उक्त नौ लेखों से और अंतिम ६ अक्षर ('ग' से 'हि' तक) स्फटिक पर के लेस्त्र से लिये हैं, जिसकी लिपि पहिले तीन लिपिपत्रों की शैली की (ब्राह्मी) है. पाषाण के पात्रों पर खदेहएईलेखों की लिपि में 'घ''द'.'भ','मल','ष' और 'ळ'इन७अक्षरों में पहिले तीन लिपिपलों के अहरों से भिन्नता है (इन अक्षरों को लिपिपत्र १ से ३ तक के अक्षरों से मिलाकर देखो). दूसरा भेद यह है कि प्रत्येक व्यंजन जब स्वरों की मात्रा से रहित होता है तब उसके साथ दाहिनी मोर एक बाड़ी लकीर लगाई गई है जैसे अशोक के लेखों में 'श्रा' की मात्रा लगाई जाती थी. यह लकीर बहुधा व्यंजन के अप्रभाग से सटी रहती है परंतु कभी कभी कुछ नीचे की तरफ और कभी मध्य में लगाई जाती है. 'ज' के साथ जब स्वर की कोई माला नहीं होती तब वह अशोक के लेखों के 'ज' के समान होता है (बीच की आडी लकीर स्वरचिकरहित दशा की है ); परंतु जब उसके साथ कोई स्वर की मात्रालगी रहती है उस समय उसका रूप बहुधा मिलता है (देखो, जु, जू,जे, जं). इन भेदों से पाया जाता है कि उक्त लेखों की लिपि पिपावा, बी और अशोक के लेखों की लिपि से नहीं निकली किंतु उस मृल लिपि से निकली होगी जिससे स्वयं पिप्रावा, बर्ली और अशोक के लेखों की लिपि निकली है'. संभवतः यह द्रविड (द्राविडी) लिपि- हो.
१. ये पहिली तीन पंक्तियां भरहुत के स्तूप के लेख से हैं (इ. जि. १५, पृ. १३६, 2. यहां से तीन पंक्तियां नानाघाट के लेख से हैं (आ.स.वै. जि.५, प्लेट ५१, लेख संख्या १), २. . जि. २, पृ. ३२८-२९ के बीच के प्लेट. . देखो ऊपर पृ.४२.
५. मटिमोलु के उक्त र लेजो के अतिरिक्त इस शैली की लिपि (द्राविडी) का और कोई शिलालेख अब तक नहीं मिला, परंतु अध्रिवंशी राजा गौतमीपुत्र श्रीयशातकार्यि के एक प्रकार के सिक्के पर एक तरफ 'रो गोतमिपुतस सिरिया
Aho 1 Shrutgyanam