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प्राचीनलिपिमाला.
अक्षरों में 'अ', 'क', 'रादि खड़ी लकीर वाले अक्षरों की नथा 'पु' में 'उ की मात्रा की खड़ी लकीर को लंबा कर नीचे के भाग में पाई ओर ग्रंथि मी बना कर अक्षर में अधिक सुंदरता लाने का या स्पष्ट पाया जाता है, लिपिपत्र ११ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर
सिधं श्रोतराहस दांतामिसियकस योगा कम धमदेवपुसस इंद्रामिदसस धमात्मना इमं लेणं पवते तिरंगहुम्हि खा. मित अभंतरं च लेणस चेतियघरी पोढिया प मातापितरो उदिस इम लेप कारितं सवबंधपुजाय पातुदि. शस भिखू संघस नियातितं सह पुतेन धमरखितम.
__ लिपिपत्र १२ वा. यह लिपिपत्र अमरावती के कई एक लेखों तथा जग्गयट के लेखों से तय्यार किया गया है. अमरावती के लेखों के अक्षरों में की तीन विंदिओं के स्थान में तीन माड़ी लकीरें बनाई है इतना नहीं किंतु उनको वक्र भी बनाया है और 'जा' में श्रा' की मात्रा को नीचे की ओर झुकाया है. जग्गयपेट के लेखों में 'अ', 'क', 'अ' आदि अक्षरों की खड़ी लकीरों को नीचे की ओर बहुत बड़ा कर उनमें बाई और घुमाव डाला है. और 'ल' की खड़ी लकीर को ऊपर की ओर बढ़ाकर घुमाया है, ऐसे ही'', 'ई'को और कहीं 'उ की मात्राओं को भी 'इ' के चित्र की तीन बिंदियों के स्थान में अधिक मुड़ी हई लकीरें बनाई है. 'इ के पहिले रूप की इन तीनों लकीरों को चलती कलम से जोड़ कर लिखने से वर्तमान तामिळ लिपि के 'इ' का पूर्वरूप बन जाता है (देखो, लिपिपत्र ८४ में तामिळ लिपि की उत्पात में 'इ' का तीसरा रूप). Amar की मृत पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर
सिध। रो(ओ) माढरिपुतस स्वाकुता(ण) सिरिविरपुरिसदसस संवछर २• वासापर्व ६ दिवसं १० कमाकरथे गडदुरे चावेनिस नाकचंदस पूतो गामे महाकाडसरे भावेसनि सिधा आपण मातरं नागिलनि पुरतो कातुनं घरनिं
लिपिपत्र १३ वा. यह लिपिपत्र मामिडवोल स मिले हुए पल्लववंशी शिवस्कंदवर्मन् के दानपत्र से तय्यार किया गया है. इसमें 'ए', 'ज', 'न', 'न', 'म' और 'स अक्षर विलक्षण है. 'ए' की त्रिकोण श्राकृति मिटकर नया रूप बना है जो त्वरा से लिखने के कारण ऐसा हुआ है. कलम उठाये बिना ही'त को पूरा लिखने से उसके बीच में ग्रंथि बन गई है। 'न' कालि के लेख में मिलनेवाले
है ये मूल पंक्तियां द्राग्निदत्त के लेख से हैं (.: जि. नासिक के लेखों का प्लेट ५. लेखसंख्या १८.) ५. प्रा.स.स. जि. १, प्लेट ५६, लेखसंख्या १. १३, १६, १७, १८, ३०. ३१. ३०.४०. ४१, ४५, ५३. ३. प्रा. स. स. जि. १, प्लेट ६२, ६३, लेखसंख्या २-३. ४. ये मूल पंक्तियां प्रा. स.स. पसेट ६३, लेख प्रख्या ३ से है.
है; जि.६, पृ.८४ से के बीच के ५ प्लेटो से. 4. 'स' का ऐसा ही रूप कन्हेरी के एक लेख में भी मिलता है (देखो,लिपिपत्र ११ में).
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