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माझी लिपि.
लिपिपत्र तीसरा यह लिपिपत्र रामगढ़, घोसुंडी', बेसनगर (विदिशा), नागार्जुनी गुफा', नानाघाट', भरहुता और सांधी के स्तूपों और हाथीगुंफा के लेखों से तय्यार किया गया है और मुख्य मुख्य प्रक्षर ही दिये गये हैं. उक्त लेखों में से पहिले ७ में कोई संवत् नहीं है, केवल हाधीगुंफा के लेख में मुरिय काल (मौर्य संवत्) १६४ ( गत) दिया है, अतएव इस लिपिपल का समय अनुमान के आधार पर ही दिया गया है.
घोसुंडी के लेख में 'ले में 'त्' के साथ 'रको जोडने में 'त के नीचे की दाहिनी ओर की तिरछी लकीर को कुछ संया कर दिया है ( इसी तरह बेसनगर के लेस्व के 'ने में भी), 'प्रा में 'र' नीचे की तरफ जोडा गया है और '' में 'ष के प्रारंभ की सीधी खड़ी लकीर को भाधिक लंबा कर 'र' का रूप उसीमें बता दिया है.
सनगर (विदिशा) के लेख में 'या' और 'द्र' में 'रको अधिक लंबी वक्र रेखा का रूप देकर नीचे की तरफ जोडा है.
नानाघाट के लेख में 'ई:: बनाया है जिसमें तीन बिंदी तो इ की हैं और चौथी अनुस्वार की है. 'थो में 'ओ की मात्रा की दोनों तरफ की पाड़ी लकीरों को जोड़ कर एक ही लकीर बना दी है जो 'ध' से ऊपर अलग ही लगाई है परंतु 'लो' में 'भो की मात्रा की दोनों लकीरों को जोड़ कर एक कर दिया है और उसे 'ल' के अग्रभाग के साथ ही ठीक ठीक जोडा है. 'प्र', 'ब्र' और 'ब' में 'र' को नीचे की तरफ जोड़ा है जो 'उ'की माता का भ्रम उत्पन्न कराता है.
भरहुत के लेख में 'वि' के साथ की 'इ' की मात्रा के अन भाग को दाहिनी तरफ बढ़ा कर उसमें संदरता लाने का यत्न किया है और 'गी' के साथ की'ई' की मात्रा की दोनों खड़ी लकीरों को कुछ बाई ओर झुकाया है.
१. मा. स. ई.स. १९०३-४ प्लेट ४३ वां (B)... २. उदयपुर के विक्टोरिमा हॉल में रबखे हुए उक सेख की अपने हाथ से तय्यार की हुई छाप से. 1. आ. स. ई.स. १६०-३, प्लेट ४६ बां.
इ. जि. २०, पृ. ३६४-५ के पास के प्लेट, अ. भा. स.के. जि.प्लेट ५१, लेख सं. १-२. .. जि.१४. पू. १३६ - बू.पे झट २. पंक्ति १८, अक्षर संख्या ४१.
८. पेप्सेट २, पक्ति २१-२२, और पं. भगवानलाल इंद्रजी संपादित 'हाधीगुंफा पंधी प्रदर इन्स्क्रिपशन्स्' के सायापोट, लेख संख्या १.
१. यदि मौर्य संवत् का प्रारंभ मौर्यवंश के संस्थापक चंद्रगुप्त के राज्याभिषेक अर्थात् ई. स. पूर्ष ३२१ से माना जावे तो उक लेख का समप (३२१-१६) ई.स. पूर्व १५७ होगा.
१. डॉ.दूसरनेस चिक::को'माना (स.पे, पृ. ३४) और कोई कोई यूरोपिमन विद्वान् इसे यूलर के कथनातुसार ही पढ़ते हैं (प.जि.८, पृ.१०) परंतु वास्तव में यह ''ही है. '' की तीन बिवियों के साथ अनुस्वार की चौथी हिंदी लगने ही ऐसा रूप बनता है और चार बिंदी होने से ही उनको समान रेखा में लिखा है. अब तक केवल निम्न लिखित ५ लेखो में ही यह चिट मिला है जहां सर्वत्र'' पढ़ना ही युक्त है
मानाघाट के खेल में-'नमो दस (मा. स. के.जि.५, प्लेट ५१, पंक्तिपहिली). बुद्धगया के रोस्यों में-दागिमित्रास (काम.यो पलेट १०, संख्या १-१०). मथुरा के लेखा मे-'गोतिपुत्रलद्रपाल...'] ( जि.२, पृ. २०१ के पास का पोर, शेख संख्या ६). मासिक के लेख में-'मदेवपुतस ग्राग्निवतस' (ऐ.जि. पू.१०).
इन पांचों लेखों में यह विश ' शब्द के प्राकृत रूप रंच' में प्रयुक्त हुआ है जहां 'ईद' पढ़ना ठीक नहीं हो सकता. नानापाट के लेख का कर्ता जहां प्राकृत में अनुस्वार की मावश्यकता नहीं थी वहां भी मनुस्वार लगाता है ( नमो सकसनबासुदेवान......बतुंनं पं लोकपालानं ) तो वह 'इंद्र' के प्राकृत रूप को 'इंद' लिख कर 'ईद' लिणे यह संभव हीनही.
Aho! Shrutgyanam