________________
प्राचीनलिपिमाला पिप्रावा. बी और अशोक के लेखों की लिपि से बहत कुछ भिन्नता पाई जाती है जिससे अनुमान होता है कि भहिमाल के लेखों की लिपि अशोक के लेखों की लिपि से नहीं निकली किंतु उस प्राचीन प्राली से निकली होगी जिससे पिप्रावा, पी और अशोक के लेखों की लिपि निकली है. यह भी संभव है कि भट्टिमोलु के स्तृप की लिपि ललितविस्तर की 'द्राविड लिपि' हो क्योंकि वे लेख द्रविड देश के कृष्णा जिले में ही मिले हैं.
अशोक से पूर्व के जैन 'समवायांग मूत्र' में तथा पिछले बने हुए 'ललितविस्तर' में ब्राह्मी के अतिरिक्त और बहुतसी लिपियों के नाम मिलते हैं, परंतु उनका कोई लेख अब तक नहीं मिला जिसका कारण शायद यह हो कि प्राचीन काल में ही वे मब अस्त हो गई हों भार उनका स्थान अशोक के समय की ब्राह्मी ने ले लिया हो जैसा कि इस समय संस्कृत ग्रंथों के लिखने तथा छपने में भारतवर्ष के भिन्न भिन्न विभागों की भिन्न भिन्न लिपियों का स्थान बहुधा नागरी में ले लिया है. ई.स. पूर्व की पांचवीं शतान्दी से पहिले की ब्राली का कोई लेख अबतक नहीं मिला; अतएव इस पुस्तक की ब्राह्मी लिपि का प्रारंभ ई. स. पूर्व ५०० के पास पास से ही होता है.
हस्तलिखित लिपियों में सर्वत्र ही समय के साथ और लम्बकों की लेखन रुचि के अनुसार परिवर्तन हुआ ही करता है. ब्रामी लिपि भी इस नियम से बाहर नहीं जा सकती. उसमें भी समय के साथ बहुत कुछ परिवर्तन हुआ और उससे कई एक लिपियां निकली जिनके अचर मूल अक्षरों से इतने बदल गये कि जिनको प्राचीन लिपियों का परिचय नहीं है ये
यह स्वीकार न करेंगे कि हमारे देश की नागरी, शारदा (करमीरी), गुरमुखी (पंजाबी), बंगला, उडिया, तेलुगु, कनडी, ग्रन्थ, तामिळ आदि समस्त वर्तमान लिपियां एक ही मूल लिपि प्राली से निकली हैं. ब्राह्मी लिपि के परिवर्तनों के अनुसार हमने अपने सुभीते के लिये उसके विभाग इस तरह किये हैं
ई. स. पूर्व ५०० के आस पास से लगा कर ई. स. ३५० के आस पास तक की समस्त भारतवर्ष की लिपियों की संज्ञा ब्रानी मानी है. इसके पीछे उसका लेखन प्रवाह दो मोतों में विभक्त होता है जिनको उत्तरी और दक्षिणी शैली कहेंगे. उत्तरी शैली का प्रचार विंध्य पर्वत से उत्तर के तथा दक्षिणी का दक्षिण के देशों में बहुधा रहा तो भी विंध्य से उत्सर में दक्षिणी, और विंध्य से दक्षिण में उत्तरी शैली के लेख कहीं कहीं मिल ही आते हैं.
उत्तरी शैली की लिपियां ये हैं
१. गुप्तलिपि---गुप्तवंशी राजाओं के समय के लेखों में सारे उत्तरी हिंदुस्तान में इस लिपि का प्रचार होने से इसका नाम 'गुप्तलिपि' कल्पित किया गया है. इसका प्रसार ई.स. की चौथी और पांचवीं शताब्दी में रहा.
२. कुटिललिपि-इसके भक्षरों तथा विशेष कर खरों की मात्राओं की कुटिल प्राकृतियों के कारण इसका नाम कुटिल रकबा गया यह गुप्तलिपि से निकली और इसका प्रचार ई.स. की छठी शताब्दी से नवीं तक रहा, और इसीसे नागरी और शारदा लिपियां निकली.
३ नागरी-उत्तर में इसका प्रचार ई. स. की हवीं शताब्दी के अंत के पास पास से मिलता है परंतु दक्षिण में इसका प्रचार ई. स. की आठवीं शताब्दी से होना पाया जाता है क्योंकि दक्षिण के राष्टकूर (राठौड़) वंशी राजा दंतिदुर्ग के सामनगढ़ (कोल्हापुर राज्य में) से मिले हुए शक संवत् ६७५ (ई. स. ७५४ ) के दानपत्र' की लिपि नागरी ही है और दक्षिण के पिछले कई राजवंशों
है
.
जि. ११, पृ. ११० से १५३ के सामने के सेट.
Aho ! Shrutgyanam