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ब्राह्मी लिपि. शताब्दी के पीछे, लेखनशैली में अक्षरों के रूपों में परिवर्तन होते होते संयुक्ताक्षर 'ष' में 'क'
और 'ष' के मूल रूप अस्पष्ट होकर उसका एक विलक्षण ही रूप 'क्ष' बन गया तब बौद्धों ने 'क्ष' को भी वषों अर्थात् मातृकाओं (सिद्धमातृकाओं) में स्थान दिया. इसी तरह पीछे से संयुक्ताक्षर 'जन' के 'ज' और 'त्र' के रूप अस्पष्ट होकर उसका एक विलक्षण रूप'ज्ञ'यन गया तब उसको भी लोगों ने वणों में स्थान दिया. तंत्रग्रंथों में 'क्ष' और 'ज्ञ' की वर्णी अर्थात् मातृकाश्री में संज्ञा की गई है परंतु ये दोनों सर्वथा वर्ण नहीं किंतु संयुक्तवर्ण हैं और उनके घटक दो दो अक्षरों के मूलरूप न रहने पर एक ही विलक्षण नया संकेत बन जाने से ही उनकी वर्षों में गणना हुई है जैसे कि वर्तमान काल में नागरी की वर्णमाला में 'त्र' की भीर,
लिपिपत्र पहिसा. यह लिपिपत्र गिरनार पर्वत के पास के चटान पर खुदे हुए मौर्यवंशी राजा अशोक के लेख की अपने हाथ से तय्यार की हुई छापों से बनाया गया है. यह लेख मौर्यराज्य के पश्चिमी विभाग का होने से वहां की ब्राह्मी लिपि को प्रकट करता है. इसमें स्वरों की मात्राओं के चित्र इस प्रकार मिलते हैं
'आ' की मात्रा एक छोटीसी आड़ी लकीर (-) है जो व्यंजन की दाहिनी तरफ बहुधा अक्षर के ऊपर की ओर (देखो, खा, रा) परंतु कभी कभी मध्य में भी, (देखो, जा,मा, घा) लगाई जाती है. 'ज' के साथ 'आ' की मात्रा का योग केवल 'ज' के मध्य की लकीर को कुछ अधिक लंबी कर के बतलाया है जिससे कभी कभी 'ज' और 'जा' में भ्रम हो जाता है,
'इकी मात्रा का नियत चिश है जो व्यंजन की दाहिनी और ऊपर की तरफ लगता है (देखो, नि), परंतु कहीं कहीं समकोण के स्थान पर गोलाइदार या तिरछी लकीर भी मिलती है (देखो, टि, लि).
'ई' की मात्रा का नियत चिड़ है, जो व्यंजन की दाहिनी ओर ऊपर की तरफ़ जोड़ा जाता है (देखो, टी, ही), परंतु कहीं कहीं आड़ी सीधी लकीर को तिरछा कर दिया है, और समकोण के स्थान में गोलाई मिलती है (देखो, पी, मी); 'थी' बनाने में 'थ' के साथ केवल दो तिरड़ी लकीरें ही लगा दी गई हैं.
अशोक के पूर्व के चली गांव के लेख में 'वीराय' के 'बी' अक्षर के साथ 'ई' की मात्रा का चित्र (है, जो अशोक के समय में लुस हो चुका था और उसके स्थान में ऊपर लिखा हुआ नया चिक बर्ताव में आने लग गया था (देखो, ऊपर पृष्ठ ३ और वहीं का टिप्पण २).
के अंत में जिस लेखक ने वह पुस्तक लिखी है उसीके हाथ की लिखी हुई उस समय की पूरी वर्णमाला है जिसमें इन चार वणों को स्थान दिया गया है (देखो, लिपिपत्र १६), पेसे ही हराकोल से मिले हुए ई.स. की १२ वीं शताब्दी के दौर तांत्रिक शिलालेख में प्रत्येक वर्ष पर अनुस्वार लगा कर पूरी वर्णमाला के बीज बनाए हैं जिनमें भी ये चारो वर्ण हैं (लिपिपत्र ३५ ) और उदयादित्य के समय के उज्जैन के शिलालेख के अंत में खुदी हुई पूरी वर्णमाला में भी ये चारों वर्ष दिये हुए है ( देखो लिपिपत्र २५).
१. वर्तमान '' में मूल घटक दोनों अक्षरों में से एक अर्थात् 'र' का चिह तो पहिचाना जाता है, परंतु त्' का नहीं, किंतु 'स' और 'श' में दोनों ही के मूल अक्षरों का पता नहीं रहा. इतना ही नहीं, 'ज्ञ' मे तो वास्तविक उमारण भी नष्ट हो गया. दक्षिणी लोग कई कोई इसे 'न' बोलते है ( देखा बंई के अंगरेजी पत्र ज्ञानप्रकाश का अंगरेज़ी अक्षारांतर Dnan Prakash) औरं उत्सर में '' का स्पष्ट :ग्य' उच्चारण है, केवल कुछ संस्कृतक्ष 'गम्य के सदृश उच्चारण करते है. ऐसी दशा में जब हम संकेतों से मूल अक्षरों का भान नहीं होता तब उच्चारण और वर्णशान की शुद्धि के लिये
'ष' और 'जज' लिखना और छापना ही उचित दै.
Aho! Shrutgyanam