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प्रयोगवाह.
व्यंजन.
माझी जिपि
अनुस्वार. ' विसर्ग. :
जिह्वामूलीय. क
उपध्मानीय
भूप
ख
+
स्पर्श. क
प
さ
त
5
ध
प फ
* (ग्वम् या गुं)
गं
ळ
ब
Aho! Shrutgyanam
स्व
*फ
भ
न
म
就
उनके लिये स्वतंभ संकेत और मात्राएं मिलती है वैसे ही प्राचीन काल में प्लुत स्वरों के लिये भी कोई विशेष चिल रहे होंगे जिनका अब पता नहीं चलता. जैसे वर्तमान नागरी में 'श्रो' और 'औ' के, और गुजराती तथा मोडी (मराठी) में 'प' दे','ओ' और 'औ' के मूल संकेत न रहने से 'अ' पर ही मात्रा लगा कर काम चलाया जाता है (ओ, औ, श्रो, भौ-गुजराती) वैसे ही प्लुत के प्राचीन चिह्नों के लुप्त होने पर दीर्घ के आगे ३ का अंक लगाया जाने लगा हो. वस्तुतः संस्कृत साहित्य में भी प्लुत का प्रयोग क्रमशः बिलकुल उठ गया. संबोधन, वाक्यारंभ, यशकर्म, मंत्रों के अंत, यश की आशाएं, प्रत्युत्तर, किसी के कहे हुए वाक्य को दोहराने, विदारणीय विषय प्रशंसा, आशीर्वाद, कोप, फटकारने, सदाचार के उल्लंघन आदि अवसरों पर वैदिक साहित्य और प्राचीन संस्कृत में प्लुत का प्रयोग होता था (पाणिनि ८ २ ८२-१०८), परंतु पीछे से केवल संबोधन और प्रणाम के प्रत्युतर में ही इसका व्यवहार रह गया. पतंजलि ने व्याकरण न पढ़नेवालों को एक पुरानी गाथः अद्भुत करके डराया है कि यदि तुम अभिवादन के उसर में प्लुत करना न जानोगे तो तुम्हें खियों की तरह सादा प्रणाम किया जायगा. इस से यह तो स्पष्ट है कि स्त्रियों की बोलचाल से तो उस समय प्लुत उठ गया था परंतु पीछे से पुरुषों के व्यवहार से भी वह जाता रहा. केवल कहीं कहीं वेदों के पारायण में और प्रतिशास्यों तथा व्याकरणों के नियमों में उसकी कथा मात्र बची ३. 'ओ' और 'श्री' के प्लुत, कहीं पूरे संध्यक्षर का लुत करने से, और कहीं 'इ' और 'ड'को केवल 'अ' के प्लुत करने से बनते थे, जैसे अग्ने३ या अग्नाश
र
१. अनुस्वार नकार (अनुनासिक) का स्वरमय उधारण दिखाता है. बेदों ने जब अनुस्वार 'र', '' 'प' और 'ह' के पहिले जाता है तब उसका उधारण 'ग' से मिश्रित 'गुं' या 'ग्वं सा होता है जिसके लिये वेदों में सि है. यह यजुर्वेद में ही मिलता है. शुक्लयजुर्वेद के प्रातिशाज्य में इसके इस्व, दीर्घ और गुरु तीन भेद माने गये हैं जिनके पा म्यारे चित्रों की कल्पना की गई है. प्राचीन शिलालेखादि में कभी कभी 'वंश' की जगह 'वंश' और 'सिंह' के स्थान मे 'सिह' खुदा मिलता है. अनुस्वार का 'श' के पहिले पेसा उधारण आर्यकंठों में अब भी कुछ कुछ पाया जाता है और कई बंगाली अपने नामों के हिमांशु सुधां आदि को अंगरेजी में Himangshu, Sudiangah (हिमांग एथ आदि लिख कर के उच्चारण की स्मृति को जीवित रखते है.
'क' और 'स' के पूर्व विसर्ग का उच्चारण विलक्षण होता था और जिह्वामूलीय कहलाता था. इसी तरह 'प' और 'फ' के पहिले विसर्ग का उच्चारण भी भिन्न था मौरा उपध्मानीय कहलाता था. जिह्वामूलीय और उपध्मानीय के प्यारे म्यारे विश के जो कभी कभी प्राचीन पुस्तकों, शिलालेखों और ताम्रपत्रों में मिट भाते हैं, जो अक्षरों के ऊपर, बहुधा उनसे जुड़े हुए, होते हैं, और उसमें भी अक्षरों की मां समय के साथ परिवर्तन होना पाया जाता है (देखो खिपिपत्र १७२१ २२ २३ २८, २४ आदि) बोपदेव ने अपने व्याकरण में अनुस्वार को 'बिंदु' विवर्ग को 'डिबिंदु जिवामूलीय को 'बज्राकृति' और उपध्मानीय को 'राजकुंभाकृति ' कह कर उनका स्वरूप बतलाया है. ।
C
रुग्वेद में दो स्वरों के बीच के 'उ' का उच्चारण 'ळ' और जैसे ही आये हुए 'व' का उधारण व्ह होता है. इन दोनों के लिये भी पृथक् चिह्न हैं. 'ळ' का प्रचार राजपूताना, गुजरात, काठिश्राधाड़ और सारे दक्षिण में अब भी है और उसका संकेत भी अलग ही है जो प्राचीन 'ळ' से ही निकला है. '' को आज कल 'लू' और 'इ' को मिला कर (ब) लिखते हैं, परंतु प्राचीन काल में उसके लिये भी कोई पृथर विनियत होगा, क्योंकि प्राचीनते-जी ग्रंथ और तामिळ लिपियों के लेखों मे'' के अतिरिक एक और 'कृ' मिलता है. वैसा ही कोई चिह्न के के लिये प्राचीन वैदिक पुस्तकों में होना चाहिये.