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प्राचीमलिपिमाला.
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पादरी जेम्स स्टिवन्न् ने भी प्रिन्सेप की नई इसी शोध में लग कर क, 'ज, 'प' और अक्षरों' को पहिचाना और इन अक्षरों की सहायता से लेखों को पढ़ कर उनका अनुवाद करने का उद्योग किया गया परंतु कुछ तो अक्षरों के पहिचानने में भूल हो जाने कुछ वर्णमाला पूरी ज्ञात न होने और कुछ उन लेबों की भाषा को संस्कृत मान कर उसी भाषा के नियमानुसार पहने से वह उद्योग निष्फल हुआ. इससे भी प्रिन्सेप को निराशा न हुई. ई.स. १८४६ में प्रसिद्ध विद्वान् लॅसन में एक वाकट्रिशन ग्रीक सिक्के पर इन्हीं अक्षरों में ऍथॉलिस का नाम पढ़ा. ई. स. १८३७ में मि. प्रिन्सेप ने सांची के स्नृपों से संबंध रखने वाले स्तंभों आदि पर खुदे हुए कई एक छोटे छोटे लेखों की एकत्र कर उन्हें देखा तो उनके अंत के दो अक्षर एकसे दिखाई दिये और उनके पहिले प्रायः 'स' अक्षर पाया गया जिसको प्राकृत भाषा के संबंध कारक के एक वचन का प्रत्यय ( संस्कृत 'स्प मे ) मान कर यह अनुमान किया कि ये सब लेख अलग अलग पुरुषों के दान प्रकट करते होंगे और अंन के दोनों अचर, जो पढ़े नहीं जाने और जिनमें से पहिले के राथ 'आ' की मात्रा और हमरे के साथ अनुस्वार लगा है उनमें से पहिला अक्षर 'दा' ' और दसरा'नं' ( दानं ) ही होगा. इस अनुमान के अनुसार 'द' और 'न' के पहिचाने जाने पर वरं प्राला संपूर्ण हो गई और देहली, अलाहाबाद, सांची, मधिया, रथिना, गिरनार, धौली आदि लेख सुगमना पूर्वक पढ़ लिये गये. इससे यह भी निश्चय हो गया कि उनकी भाषा जो पहिले संस्कृत मान ली गई थी यह अनुमान ठीक न था परन उनकी भाषा उक्त स्थानों की प्रचलित देशी ( प्राकृत भाषा थी. इस प्रकार प्रिन्सेप आदि विद्वानों के उद्योग से ) ब्राह्मी अक्षरों के पड़े जाने से पहले समय के सब लग्यों का पढ़ना सुगम हो गया क्योंकि भारतवर्ष की समस्त प्राचीन लिपियों का मल यही माती लिपि है.
कर्नल जेम्स टॉड ने एक बड़ा संग्रह बाक्ट्रियन ग्रीक, शक, पार्थिअन् और कुशनवंशी राजाओं के प्राचीन सिक्कों का किया था जिनकी एक ओर प्राचीन ग्रीक और दूसरी रोष्ठी लिपि ओर खरोष्ठी अक्षरों के लेख थे. जनरल वेंडुरा ने ई. स. १८३० में मानिकमाल के स्तृप को खुदवाया तो उसमें से कई एक सिके और दो लेम्ब खरोष्ठी लिपि के मिले. इनके अतिरिक्त सर अलेक्जेंडर बर्न्स आदि प्राचीन शोधकों ने भी बहुत से प्राचीन सिके एकत्र किये जिनके एक ओर के प्राचीन ग्रीक अक्षर तो पड़े जाने थे परंतु दूसरी ओर के खरोष्ठी अक्षरों के पढ़ने के लिये कोई साधन न था. इन अक्षरों के लिये भिन्न भिन्न कल्पनाएं होने लगीं ई. स. १८२४ में कर्नल जेम्स टॉड ने करफिसेस के सिके पर के इन अक्षरों को ससेनिअन प्रकट किया ई.स. १८३३
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में एपॉलॉटॉरेंस के सिके पर के इन्हीं अक्षरों को प्रिन्सेप ने पहलवी माना और एक दूसरे सिके पर की इसी लिपि को तथा मानिकिल के लेन की लिपि को भी पाली (ब्राह्मी) बनलापा और उनकी आकृति टेढ़ी होने से यह अनुमान किया कि छापे और महाजनी लिपि के नागरी अचरों में जैसा अंतर है वैसा ही देहली आदि के अशोक के लेखों की पाली (ब्राह्मी लिपि और इनकी लिपि में है, परंतु पीछे से स्वयं प्रिन्सेप को अपना अनुमान अयुक्त जंचने लगा
C
१. ज. प. सो. बगाः जि. ३, पु. ४८५
न को पढ़ लिया था और द को पहिचाना न था.
. त्रि. प. जि. १. पू. ६३-६६
1. ज. ए. सो. बंगाः जि. २, पू. ३१३.
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अ. प. सो. गंगा, जि. ३. पू. ३१८.
こ
1.
3
4
ए. रि. जि. १८. पृ. ५७.
जपली. बंगाः जि. २, पृ. ३१३ ३१६.
ज. प. सौ. गंगा; जि. ३. पू. ३९६.
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