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सलम
प्राचीनलिपिमाला. अधर्ववेद में जुए में जीत की प्रार्थना करने का एक मूक्त' है जिसमें लिखा है कि मैंने तुम से संलिखित (अर्थात् जुए के हिसाब में तेरी जीत का लिखा हाधन) और संम्धु (जुए में धरा हुआ धन) जीत लिया. इससे पाया जाता है कि पशुओं के कानों की तरह पासों पर भी अंक रहते थे और मुए में जीते धन का हिसाब लिखा जाता था.
यजुर्वेद संहिता (वाजसनेथि) के पुरुषमेध प्रकरण में जहां भिन्न भिन्न पेशे वाले बह गिनाये है वहां 'गणक' भी लिखा है, जिसका अर्थ गणिन करने वाला (गा धातु से) अर्थात् ज्योतिषी होता है. उसी संहिता में एक. दश (१०), शत (१००), सहस्र (१०००), अयुन (१००००), नियुत (१०००००), प्रयुत (१००००००), अर्बुद (१०००००००), न्यद (१००००००००), समुद्र (१०००००००००), मध्य (१००००००००००), अन्त (१०००००००००००) और परार्ष (१००००००००००००) तक की संख्या दी है। और ठीक यही संख्या तैतिरीय संहिता में भी मिलनी है।
सामवेद के पंचविंश ब्रामण में यज्ञ की दक्षिणाओं का विधान हैं, जिसमें सबसे छोटी दक्षिणा १२ [कृष्णल] भर सोना है और आगे की दक्षिणाएं छिगुणित क्रम से बढ़ती हुई २४, ४८, ६३, १६२, ३८४,७२८, १५३०, ३०७२, ३१४४, १२२८८, २४५७७, ४६१५२, १८३०४, १९६६०८ और ३६३२१६ भर तक की बनलाई हैं. इसमें श्रेदीगणित का बड़ा अच्छा उदाहरण है और इस प्रकार का लाम्चों का गणित लिखने और गणित के ज्ञान के बिना हो ही नहीं सकता.
शमपथ ब्राह्मण के अग्निचयन प्रकरण में हिसाब लगाया है कि ऋग्वेद के अक्षरों से १२००० बृहती (३६ अक्षर का) छंद प्रजापति ने बनाये अर्थात् ऋग्वेद के कुल अक्षर (१२०००४ ३६=) ४३२००० हुए. इसी तरह यजु के ८००० और माम के ४००० बृहनी छंद बनने से उन दोनों के भी ४३२००० अक्षर हुए. इन्हीं अक्षरों से पंक्ति छंद (जिसमें आठ आठ अक्षरों के पांच पद अर्थात् ४० अक्षर होते हैं) बनाने से ऋग्वेद के (४३२००० ४०=) १०००० पंक्ति छंद हभ और उनने ही यजु और साम के मिल कर हुए. एक वर्ष के ३६० दिन और एक दिन के ३० मुहूर्त होने से वर्ष भर के मुहर्त भी १०८०० होते हैं अर्थात् तीनों वेदों से उसने पंक्ति छंद दुबारा बनते हैं जितने कि वर्ष के मुहूर्त होते हैं.
उसी प्रामण में समपविभाग के विषय में लिखा है कि रामदिन के ३० मुहूर्त, एक मुहूर्त के १५ तिम, एक क्षिप्र के १५ एतहि, एक एतर्हि के १५ इदानीं और एक इदानीं के १५ प्राण होते हैं प्रथोत् गतटिन के (३०४१५४१५४१५४१५८) १५१८७५० प्राण होते हैं. इस गणना के अनुसार एक प्राण एक सेकंड के के लगभग आता है.
शब्द काम में आते थे. इस सूत्र के व्याख्यान में कान्यायन और पतंजलि ने लिखा है कि जुधारियों के (सांकेतिक) रववहार में ये प्रयोग काम में आते थे और इनका भाव यह है कि पहले का सा जुना नहीं हुआ (अर्थात् खेल में हार गये). अक्षौर शलाका शब्दों से 'परि' का समास एकवचन में ही होता है. इससे सिद्ध है कि द्वि-परि का अर्थ 'दो पासो से पहले का सा खेल नहीं हुमा' यह नहीं है किंतु 'दो के अङ्क से पहले का सा खेल न हुना' (अर्थात् हार हुई) यही है. ऐसे एकपरि ( या पक-पर), द्विपरि (या द्वापरि, या द्वापर) या त्रिपरि शन्द ही हारने के सूचक है क्योंकि बार (रुत) में तो जीत ही होता थी. काशिका ने 'पंचिका' नामक पांच पासों के खेल का उल्लेख करके लिखा कि उसमें अधिक से अधिक (परमेश) चतुपरि शब्दास अर्थ में ] बन सकता है, क्योंकि पांच में तो अय ही होता है.
१. अथर्व, सं., ७.५० (५२). . बर्गमा सिधिसभमत भगषम (अथर्ष. सं. ७.५० (५२)..). .. पामय गायकमभिकारक मासे (यजु. षाज. सं.३०, २०),
यजु, वाज. सं १७.२. ५. है. सं. ४. ४०. ११.४, ७.१२०.१. यही संख्या कुछ फेर फार के साथ मैत्रायो (२८.१४) और काठक (३६.६) संहिता में मिलती है.
.. पंचर्षिय प्रा. १८.३. .. शतपथ ग्रा: १०४.२.२२-२५. ८, एनपथ प्रा. १२.३.२.१.
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