Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 17
________________ भगवती आराधना टीकाकार अपराजितसूरिने अपनी टीकामें अतिचारोंको स्पष्ट करते हुए शंका अतिचार और संशयमिथ्यात्वके भेदको स्पष्ट करते हुए कहा है कि शंका तो अज्ञानके कारण होती है उसके मूलमें अश्रद्धान नहीं है। किन्तु संशयमिथ्यात्वके मूलमें तो अश्रद्धान है। इसी प्रकार मिथ्यात्वका सेवन अतिचार नहीं है, अनाचार है, मिथ्यादृष्टियोंकी सेवा अतिचार है। द्रव्यलोभादिकी अपेक्षा करके मिथ्याचारित्रवालोंको सेवा भी अतिचार है। गाथा ४४ में, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावनाको सम्यग्दर्शनका गुण कहा है। गाथा ४५-४६ में दर्शनविनयका वर्णन करते हुए अरहन्त, सिद्ध, जिनबिम्ब, श्रुत, धर्म, साधुवर्ग, आचार्य, उपाध्याय, प्रवचन और दर्शनमें भक्ति, पूजा, वर्णजनन, तथा अवर्णवादका विनाश और आसादनाको दूर करना. इन्हें दर्शन विनय कहा है। टीकाकारने इन सबको स्पष्ट किया है। इनमें 'वर्णजनन' शब्दका प्रयोग दिगम्बर साहित्यमें नहीं पाया जाता। वर्णजननका अर्थ है महत्ता प्रदर्शित करना । टोकाकारने इसका कथन विस्तारसे किया है। गाथा ५५ में मिथ्यात्वके तीन भेद कहे हैं संशय, अभिगृहीत, अनभिगृहीत । इस प्रकार सम्यग्दर्शन आराधनाका कथन करनेके पश्चात् गाथा ६३ में कहा है कि प्रशस्तमरणके तीन भेदोंमेंसे प्रथम भक्तप्रतिज्ञाका कथन करेंगे क्योंकि इसकालमें उसीका प्रचलन है। इसीका कथन इस ग्रन्थमें मुख्यरूपसे है, शेष दोका कथन तो ग्रन्थके अन्तमें संक्षेपसे किया है। भक्तप्रत्याख्यान-गाथा ६४ में भक्तप्रत्याख्यानके दो भेद किये हैं-सविचार और अविचार । यदि मरण सहसा उपस्थित हो तो अविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है अन्यथा सविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है। सविचार भक्तप्रत्याख्यानके कथनके लिये चार गाथाओंसे चवालीस पद कहे हैं। और उनका क्रमसे कथन किया है। उन चवालीस पदोंमेंसे सबसे प्रथम पद 'अर्ह' का कथन करते हुए कहा है जिसको कोई असाध्य रोग हो, मुनिधर्मको हानि पहुँचानेवाली वृद्धावस्था हो, या देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत उपसर्ग हो, अथवा चारित्रका विनाश करनेवाले शत्रु या मित्र हों, दुर्भिक्ष हो, या भयानक वनमें भटक गया हो, या आँखसे कम दिखाई देता हो, कानसे कम सुनाई देता हो, पैरोंमें चलने-फिरनेकी शक्ति न रही हो, इस प्रकारके अपरिहार्य कारण उपस्थित होने पर विरत अथवा अविरत भक्त प्रत्याख्यानके योग्य होता है ॥७०-७३।। जिसका मुनिधर्म चिरकाल तक निर्दोष रूपसे पालित हो सकता है, अथवा समाधिमरण करानेवाले निर्यापक सुलभ हैं या दुभिक्षका भय नहीं है. वह सामने भयके न रहने पर भक्त प्रत्याख्यानके योग्य नहीं है। यदि ऐसी अवस्थामें भी कोई मरना चाहता है तो वह मुनिधर्मसे विरक्त हो गया है ऐसा मानना चाहिये ।।७४-७५।। इससे आगे ग्रन्थकारने भक्त प्रत्याख्यानके योग्य व्यक्तिके लिंगका कथन करते हुए कहा है जो औत्सर्गिक लिंगके धारी हैं अर्थात् समस्त परिग्रहके त्यागी हैं उनका लिंग तो बही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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