Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 16
________________ प्रस्तावना १३ गाथा ६ में कहा है कि संयमकी आराधना करने पर तपकी आराधना नियमसे होती है किन्तु तपकी आराधना में चारित्रकी आराधना भजनीय है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि भी यदि अविरत है तो उसका तप हाथीके स्नानकी तरह व्यर्थ है । अतः सम्यक्त्वके साथ संयमपूर्वक ही तपश्चरण करना कार्यकारी होता है, इसलिये चारित्रकी आराधना में सबकी आराधना होती है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही सम्यक् चारित्र होता है इसलिये सम्यक् चारित्रकी आराधना में सबकी आराधना गर्भित है । इसीसे आगममें आराधनाको चारित्रका फल कहा है और आराधना परमागमका सार है ||१४|| क्योंकि बहुत समय तक भी ज्ञान दर्शन और चारित्रका निरतिचार पालन करके भी यदि मरते समय उनकी विराधना कर दी जाये तो उसका फल अनन्त संसार है ||१६|| इसके विपरीत अनादि मिथ्यादृष्टि भी चारित्रकी आराधना करके क्षणमात्रमें मुक्त हो जाते हैं । अतः आराधना ही सारभूत है ॥७॥ इसपर यह प्रश्न किया गया कि यदि मरते समयको आराधनाको प्रवचन में सारभूत कहा है तो मरने से पूर्व जीवनमें चारित्रकी आराधना क्यों करना चाहिए || १८ || उत्तरमें कहा है कि आराधना के लिए पूर्व में अभ्यास करना योग्य है । जो उसका पूर्वाभ्यासी होता है उसकी आराधना सुखपूर्वक होती है ||१९|| यदि कोई पूर्व में अभ्यास न करके भी मरते समय आराधक होता है तो उसे सर्वत्र प्रमाणरूप नहीं माना जा सकता ||२४|| इस कथन से हमारे इस कथनका समाधान हो जाता है कि दर्शन ज्ञान चारित्र और तपका वर्णन जिनागममें अन्यत्र भी है किन्तु वहाँ उन्हें आराधना शब्दसे नहीं कहा है । इस ग्रन्थमें मुख्यरूपसे मरणसमाधिका कथन है । मरते समयकी आराधना ही यथार्थ आराधना है उसीके लिए जीवन भर आराधना की जाती है । उस समय विराधना करनेपर जीवनभरकी आराधना निष्फल हो जाती है और उस समयकी आराधनासे जीवनभरकी आराधना सफल हो जाती है । अतः जो मरते समय आराधक होता है यथार्थमें उसीके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपकी साधनाको आराधना शब्दसे कहा जाता है । । इस प्रकार चौबीस गाथाओं के द्वारा आराधनाके भेदोंका कथन करनेके पश्चात् इस विशालकाय ग्रन्थका मुख्य वर्ण्य विषय मरणसमाधि प्रारम्भ होता है इसको प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि यद्यपि जिनागम में सतरह प्रकारके मरण कहे हैं किन्तु हम यहाँ संक्षेपसे पाँच प्रकारके मरणोंका कथन करेंगे ॥ २५ ॥ वे हैं - पण्डित पण्डितमरण, पण्डितंमरण, बालपण्डितमरण, बालमरण और बाल-बालसरण ||२६|| क्षीणकषाय ओर केवलीका मरण पण्डित - पण्डितमरण है और विरताविरत श्रावकका मरण बालपण्डितमरण है ||२७|| अविरत सम्यग्दृष्टी - का मरण बालमरण है और मिथ्यादृष्टिका मरण बाल-बालमरण है ||२९|| पण्डितमरणके तीन भेद है - भक्तप्रतिज्ञा, प्रायोपगमन और इंगिनी । यह मरण शास्त्रानुसार आचरण करनेवाले साधुके होता है ॥२९॥ इसके अनन्तर ग्रन्थकारने सम्यक्त्वकी आराधनाका कथन किया है । सम्यक्त्वाराधना-गाथा ४३ में सम्यक्त्वके पाँच अतीचार कहे हैं - शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अनायतन सेवा । तत्त्वार्थसूत्र में अनायतन सेवाके स्थान में 'संस्तव' नामक अतीचार कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 1020