Book Title: Bhagavati Aradhana Author(s): Shivarya Acharya Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh SolapurPage 14
________________ प्रस्तावना 'उक्तं च' करके उद्धृत है मूलमें सम्मिलित कर लेनेसे अन्तर छहका हो जाता है। इतना ही दोनोंकी गाथा संख्या में अन्तर है। जिन पर विजयोदया टीका नहीं है । उन गाथाओंकी क्रमसंख्या प्रस्तुत संस्करणके अनुसार इस प्रकार है ५३, १०८, ११५, ११६, ११७, १५०, १८०, ४३२ से ४३८ तक (इन पर आशाधर की टीका है किन्त विजयाचार्य इन्हें मान्य नहीं करता, ऐसा भी उन्होंने नहीं लिखा है)--५९७.६८०. ६८१, ७३६, ७३७ (०३६ का अनुवाद अमित गतिने किया है), ७६९, ८०३ (अमित गतिका अनुवाद नहीं), ८०६ (अमित में है), ८१२ (अमित है), ८२६ (अमित में है), ८६९ (अमित में है) ९६२, ९६३ (अमित आशाधर दोनोंको स्वीकृत) ९६५ (आशाधर स्वीकृत, अमित नहीं) ९७३, ९७४, ९७५, ९८१ से ९९६ तक १०३८ (दोनोंसे स्वीकृत) । ११२५, ११२६, ११२७ (११२५, ११२६ में कुछ कथाओंके नाम हैं। इन दोनोंको अमितगति और आशाधरने स्वीकार नहीं किया है। ११२७ के विषयमें आशाधरने लिखा है कि संस्कृत टीकाकार इसे नहीं मानता। किन्तु शेष दोनोंके सम्बन्धमें चुप हैं। अतः ये दोनों प्रक्षिप्त हैं, किसी कथा' कोशकारने भो इनको उद्धत नहीं किया है) १२३२, १२७४ (दोनोंसे स्वीकृत) १२८८ (स्वीकृत), १३४८, १३५८, १४२७, १५४०, १६००, १६०१, १६०२, १६३४, १६३५, १७१०, २०२२ । यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित है कि इनके सिवाय भी ऐसी अनेक गाथाएँ हैं जिन्हें विजयोदयाके कर्ताने स्पष्टार्थ मानकर उनकी व्याख्या नहीं की है। किन्तु उन्हें उन्होंने स्वीकार किया हैं। २. भगवती-आराधना प्रस्तुत ग्रन्थका नाम आराधना है और उसके प्रति परम आदरभाव व्यक्त करनेके लिए उसी तरह भगवती विशेषण लगाया गया जैसे तीथंकरों और महान आचार्यों के नामोंके साथ भगवान विशेषण लगाया जाता है । ग्रन्थके अन्तमें ग्रन्थकारने 'आराहणा भगवदी' (गाथा २१६२) लिखकर आराधनाके प्रति अपना महत् पूज्यभाव व्यक्त करते हुए उसका नाम भी दिया है। फलतः यह ग्रन्थ भगवती आराधनाके नामसे ही सर्वत्र प्रसिद्ध है। किन्तु यथार्थमें इसका नाम आराधना मात्र है। इसके टीकाकार श्री अपराजित सूरिने अपनी टीकाके अन्तमें उसका नाम आराधना टीका ही दिया है। इस भगवती आराधनाको आधार बनाकर आचार्य देवसेनने जो एक ग्रन्थ रचा है उसका नाम उन्होंने आराधनासार२ दिया है । इस भगवती आराधनाको संस्कृत पद्योंमें निबद्ध करनेवाले आचार्य अमितगति' ने भी अपनी प्रशस्तिमें 'आराधनैषा' लिखकर उसका नाम आराधना ही रखा है। तथा उसका एक स्तवन भी साथमें रचा है। दूसरे पंजिकाकार पं० आशाधरने यद्यपि १. देखो वृहत्कथाकोशकी डा० उपाध्येकी प्रस्तावना पृ० ७७ । संस्करण १९४३ । २. मा० दि० ग्रन्थमाला बम्बईसे वि० सं० १९७३ में प्रथम बार प्रकाशित । ३. सोलापुर संस्करणमें (१९३५) मुद्रित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 1020